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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 483
ऋषिः - निध्रुविः काश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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प꣡व꣢स्व दे꣣व꣡ आ꣢यु꣣ष꣡गिन्द्रं꣢꣯ गच्छतु ते꣣ म꣡दः꣢ । वा꣣यु꣡मा रो꣢꣯ह꣣ ध꣡र्म꣢णा ॥४८३॥

स्वर सहित पद पाठ

प꣡व꣢꣯स्व । दे꣣वः꣢ । आ꣣युष꣢क् । आ꣣यु । स꣢क् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । गच्छतु । ते । म꣡दः꣢꣯ । वा꣣युम् । आ । रो꣣ह । ध꣡र्म꣢꣯णा ॥४८३॥


स्वर रहित मन्त्र

पवस्व देव आयुषगिन्द्रं गच्छतु ते मदः । वायुमा रोह धर्मणा ॥४८३॥


स्वर रहित पद पाठ

पवस्व । देवः । आयुषक् । आयु । सक् । इन्द्रम् । गच्छतु । ते । मदः । वायुम् । आ । रोह । धर्मणा ॥४८३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 483
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
हे पवमान सोम ! हे पवित्रताकारी रसागार परब्रह्म ! (देवः) दिव्यगुणवाले आप (आयुषक्) उपासक मनुष्यों में समवेत होकर (पवस्व) प्रस्रुत होवो, आनन्द-रस को प्रवाहित करो। (ते मदः) आपका आनन्द-रस (इन्द्रम्) आत्मा को (गच्छतु) प्राप्त हो। आप (धर्मणा) अपने धारक बल से (वायुम्) मेरे प्राण पर (आरोह) आरूढ़ होवो, अर्थात् मेरे प्राण भी आपकी तरङ्ग से तरङ्गित हों ॥७॥

भावार्थ - परमात्मा-रूप सोम से झरा हुआ आनन्द-रस तभी प्रभावकारी होता है, जब वह आत्मा, प्राण आदि में पूर्णतः व्याप जाता है ॥७॥

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