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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 486
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
10
प꣢रि꣣ प्रा꣡सि꣢ष्यदत्क꣣विः꣡ सिन्धो꣢꣯रू꣣र्मा꣡वधि꣢꣯ श्रि꣣तः꣢ । का꣣रुं꣡ बिभ्र꣢꣯त्पुरु꣣स्पृ꣡ह꣢म् ॥४८६॥
स्वर सहित पद पाठप꣡रि꣢꣯ । प्र । अ꣣सिष्यदत् । कविः꣢ । सि꣡न्धोः꣢꣯ । ऊ꣣र्मौ꣢ । अधि꣢꣯ । श्रि꣣तः꣢ । का꣣रु꣢म् । बि꣡भ्र꣢꣯त् । पु꣣रुस्पृ꣡ह꣢म् । पुरु । स्पृ꣡ह꣢꣯म् ॥४८६॥
स्वर रहित मन्त्र
परि प्रासिष्यदत्कविः सिन्धोरूर्मावधि श्रितः । कारुं बिभ्रत्पुरुस्पृहम् ॥४८६॥
स्वर रहित पद पाठ
परि । प्र । असिष्यदत् । कविः । सिन्धोः । ऊर्मौ । अधि । श्रितः । कारुम् । बिभ्रत् । पुरुस्पृहम् । पुरु । स्पृहम् ॥४८६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 486
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2;
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विषय - अगले मन्त्र में सोम परमात्मा के साथ तरङ्गों के झूले में झूलना वर्णित है।
पदार्थ -
(कविः) वेदकाव्य का कर्ता, काव्यजनित आनन्द से तरङ्गित हृदयवाला सोम परमेश्वर (सिन्धोः) आनन्दसागर की (ऊर्मौ) लहरों पर (अधिश्रितः) स्थित हुआ (पुरुस्पृहम्) अतिप्रिय (कारुम्) स्तुतिकर्ता जीव को (बिभ्रत्) अपने साथ धारण किये हुए (परि प्रासिष्यदत्) आनन्द की लहरों पर झूल रहा है ॥१०॥ वस्तुतः परमात्मा का झूले आदि से सम्बन्ध न होने के कारण यहाँ असम्बन्ध में सम्बन्ध रूप अतिशयोक्ति अलङ्कार है ॥१०॥
भावार्थ - सच्चिदानन्दस्वरूप रसमय परमेश्वर अपने सहचर मुझ जीवात्मा का मानो हाथ पकड़े हुए आनन्द-सागर की लहरों पर झूल रहा है। अहो, उसके साथ ऐसा पहले कभी अनुभव में न आया हुआ सुख मैं अनुभव कर रहा हूँ। सचमुच, कृतकृत्य हो गया हूँ। मैंने जीवन की सफलता पा ली है ॥१०॥ इस दशति में भी रसागार सोम परमेश्वर का तथा तज्जनित आनन्द का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ पञ्चम प्रपाठक में द्वितीयार्ध की पाँचवीं दशति समाप्त ॥ यह पञ्चम प्रपाठक समाप्त हुआ ॥ पञ्चम अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
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