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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 530
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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क꣡नि꣢क्रन्ति꣣ ह꣢रि꣣रा꣢ सृ꣣ज्य꣡मा꣢नः꣣ सी꣢द꣣न्व꣡न꣢स्य ज꣣ठ꣡रे꣢ पुना꣣नः꣢ । नृ꣡भि꣢र्य꣣तः꣡ कृ꣢णुते नि꣣र्णि꣢जं꣣ गा꣡मतो꣢꣯ म꣣तिं꣡ ज꣢नयत स्व꣣धा꣡भिः꣢ ॥५३०॥

स्वर सहित पद पाठ

क꣡नि꣢꣯क्रन्ति । ह꣡रिः꣢꣯ । आ । सृ꣣ज्य꣡मा꣢नः । सी꣡द꣢꣯न् । व꣡न꣢꣯स्य । ज꣣ठ꣡रे꣢ । पु꣣नानः꣢ । नृ꣡भिः꣢ । य꣣तः꣢ । कृ꣣णुते । निर्णि꣡ज꣢म् । निः꣣ । नि꣡ज꣢꣯म् । गाम् । अ꣡तः꣢꣯ । म꣣ति꣢म् । ज꣣नयत । स्वधा꣡भिः꣢ । स्व꣣ । धा꣡भिः꣢꣯ ॥५३०॥


स्वर रहित मन्त्र

कनिक्रन्ति हरिरा सृज्यमानः सीदन्वनस्य जठरे पुनानः । नृभिर्यतः कृणुते निर्णिजं गामतो मतिं जनयत स्वधाभिः ॥५३०॥


स्वर रहित पद पाठ

कनिक्रन्ति । हरिः । आ । सृज्यमानः । सीदन् । वनस्य । जठरे । पुनानः । नृभिः । यतः । कृणुते । निर्णिजम् । निः । निजम् । गाम् । अतः । मतिम् । जनयत । स्वधाभिः । स्व । धाभिः ॥५३०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 530
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
प्रथम—सोम ओषधि के पक्ष में। (हरिः) हरे रंग का सोम (आ सृज्यमानः) द्रोणकलश में छोड़ा जाता हुआ (कनिक्रन्ति) शब्द करता है। (वनस्य) जंगल के (जठरे) मध्य में (सीदन्) स्थित वह (पुनानः) वायुमण्डल को पवित्र करता है। (नृभिः) यज्ञ के नेता ऋत्विजों से (यतः) पकड़ा हुआ वह सोम (गाम्) गोदुग्ध को (निर्णिजम्) अपने संयोग से पुष्ट (कृणुते) करता है। (अतः) इस कारण, हे यजमानो ! तुम (स्वधाभिः) हविरूप अन्नों के साथ, सोमयाग के प्रति (मतिम्) बुद्धि (जनयत) उत्पन्न करो, अर्थात् सोमयाग के निष्पादन में रुचि लो ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। (हरिः) पापहारी परमेश्वर (आसृज्यमानः) मनुष्य के जीवात्मा के साथ संयुक्त होता हुआ (कनिक्रन्ति) कर्तव्याकर्तव्य का उपदेश करता है। (वनस्य) चाहनेयोग्य अपने मित्र उपासक मनुष्य के (जठरे) हृदय के अन्दर (सीदन्) बैठा हुआ वह (पुनानः) पवित्रता देता रहता है। (नृभिः) उपासक जनों से (यतः) हृदय में नियत किया हुआ वह (गाम्) इन्द्रिय-समूह को (निर्णिजम्) शुद्ध (कृणुते) करता है। (अतः) इस कारण, हे मनुष्यो ! तुम (स्वधाभिः) आत्मसमर्पणों के साथ, उस परमेश्वर के प्रति (मतिम्) स्तुति (जनयत) प्रकट करो ॥८॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। उपमानोपमेयभाव गम्य है ॥८॥

भावार्थ - जैसे द्रोणकलश में पड़ता हुआ सोम टप-टप शब्द करता है, वैसे ही मनुष्यों के आत्मा में उपस्थित परमेश्वर कर्तव्य का उपदेश करता है। जैसे गोदूध से मिलकर सोम उस दूध को पुष्ट करता है, वैसे हृदय में निगृहीत किया परमेश्वर इन्द्रियों को पुष्ट और निर्मल करता है। अतः परमेश्वर के प्रति सबको स्तुतिगीत गाने चाहिएँ ॥८॥

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