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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 55
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
12
दे꣣वो꣡ वो꣢ द्रविणो꣣दाः꣢ पू꣣र्णां꣡ वि꣢वष्ट्वा꣣सि꣡च꣢म् । उ꣡द्वा꣢ सि꣣ञ्च꣢ध्व꣣मु꣡प꣢ वा पृणध्व꣣मा꣡दिद्वो꣢꣯ दे꣣व꣡ ओ꣢हते ॥५५॥
स्वर सहित पद पाठदे꣣वः꣢ । वः꣣ । द्रविणोदाः꣢ । द्र꣣विणः । दाः꣢ । पू꣣र्णा꣢म् । वि꣣वष्टु । आसि꣡च꣢म् । आ꣣ । सि꣡च꣢꣯म् । उत् । वा꣣ । सिञ्च꣡ध्व꣢म् । उ꣡प꣢꣯ । वा꣣ । पृणध्वम् । आ꣢त् । इत् । वः꣣ । देवः꣢ । ओ꣣हते ॥५५॥
स्वर रहित मन्त्र
देवो वो द्रविणोदाः पूर्णां विवष्ट्वासिचम् । उद्वा सिञ्चध्वमुप वा पृणध्वमादिद्वो देव ओहते ॥५५॥
स्वर रहित पद पाठ
देवः । वः । द्रविणोदाः । द्रविणः । दाः । पूर्णाम् । विवष्टु । आसिचम् । आ । सिचम् । उत् । वा । सिञ्चध्वम् । उप । वा । पृणध्वम् । आत् । इत् । वः । देवः । ओहते ॥५५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 55
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6;
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विषय - प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को प्रेरणा दी जा रही है।
पदार्थ -
हे मनुष्यो ! (द्रविणोदाः) धन और बल का दाता (देवः) दिव्यगुणमय परमेश्वर (वः) तुम्हारी (पूर्णाम्) भक्तिरसरूप सोम से परिपूर्ण (आसिचम्) मन रूप स्रुवा की (विवष्टु) कामना करे। तुम (उत् सिञ्चध्वं वा) श्रद्धारस से उस परमेश्वर को स्नान कराओ, (उप पृणध्वं वा) और तृप्त करो। (आत् इत्) तदनन्तर ही (देवः) परमेश्वर (वः) तुम्हें (ओहते) वहन करेगा अर्थात् लक्ष्य पर पहुँचाएगा ॥१॥
भावार्थ - सब उपासक जनों को चाहिए कि प्रेमरस से भरी हुई अपनी मनरूप स्रुवाओं से परमेश्वर को श्रद्धारस से सींचें और तृप्त करें। इस प्रकार सींचा हुआ और तृप्त किया हुआ वह उपासकों को उनके निर्धारित लक्ष्य की ओर ले जाता है ॥१॥
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