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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 573
ऋषिः - द्वित आप्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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प्र꣡ पु꣢ना꣣ना꣡य꣢ वे꣣ध꣢से꣣ सो꣡मा꣢य꣣ व꣡च꣢ उच्यते । भृ꣣तिं꣡ न भ꣢꣯रा म꣣ति꣡भि꣢र्जु꣣जो꣡ष꣢ते ॥५७३॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣢ । पु꣣नाना꣡य꣢ । वे꣣ध꣡से꣢ । सो꣡मा꣢꣯य । व꣡चः꣢꣯ । उ꣣च्यते । भृति꣢म् । न । भ꣣र । मति꣡भिः꣢ । जु꣣जो꣡ष꣢ते ॥५७३॥


स्वर रहित मन्त्र

प्र पुनानाय वेधसे सोमाय वच उच्यते । भृतिं न भरा मतिभिर्जुजोषते ॥५७३॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । पुनानाय । वेधसे । सोमाय । वचः । उच्यते । भृतिम् । न । भर । मतिभिः । जुजोषते ॥५७३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 573
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 10;
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पदार्थ -
(पुनानाय) उपासक के हृदय को पवित्र करनेवाले, (वेधसे) आनन्द के विधायक (सोमाय) रसागार परमात्मा के लिए (वचः) धन्यवाद का वचन (प्र उच्यते) हमारे द्वारा कहा जा रहा है। हे मित्र ! तुम भी (मतिभिः) बुद्धियों से (जुजोषते) तुम्हें तृप्त करनेवाले उस परमात्मा के लिए (भृतिं न) वेतन-रूप या उपहार-रूप धन्यवादादि वचन को (भर) प्रदान करो, अर्थात् कार्य करनेवाले को जैसे कोई बदले में वेतन या उपहार देता है, वैसे ही बुद्धि देनेवाले उसे तुम बदले में धन्यवाद दो ॥८॥ इस मन्त्र में ‘भृतिं न भर’ में उत्प्रेक्षालङ्कार है ॥८॥

भावार्थ - जो परमेश्वर सुमति-प्रदान आदि के द्वारा हमारा उपकार करता है, उसके प्रति हम कृतज्ञता क्यों न प्रकाशित करें ॥८॥

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