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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 58
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
11
प्र꣢꣫ यो रा꣣ये꣡ निनी꣢꣯षति꣣ म꣢र्तो꣣ य꣡स्ते꣢ वसो꣣ दा꣡श꣢त् । स꣢ वी꣣रं꣡ ध꣢त्ते अग्न उक्थशꣳ꣣सि꣢नं꣣ त्म꣡ना꣢ सहस्रपो꣣षि꣡ण꣢म् ॥५८॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । यः । रा꣣ये꣢ । नि꣡नी꣢꣯षति । म꣡र्तः꣢꣯ । यः । ते꣣ । वसो । दा꣡श꣢꣯त् । सः । वी꣣र꣢म् । ध꣣त्ते । अग्ने । उक्थशँसि꣡न꣢म् । उ꣣क्थ । शँसि꣡न꣢म् । त्म꣡ना꣢꣯ । स꣣हस्रपोषि꣡ण꣢म् । स꣣हस्र । पोषि꣡ण꣢म् ॥५८॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यो राये निनीषति मर्तो यस्ते वसो दाशत् । स वीरं धत्ते अग्न उक्थशꣳसिनं त्मना सहस्रपोषिणम् ॥५८॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । यः । राये । निनीषति । मर्तः । यः । ते । वसो । दाशत् । सः । वीरम् । धत्ते । अग्ने । उक्थशँसिनम् । उक्थ । शँसिनम् । त्मना । सहस्रपोषिणम् । सहस्र । पोषिणम् ॥५८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 58
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6;
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विषय - अब पुरुषार्थी परमेश्वरोपासक क्या प्राप्त करता है, यह कहते हैं।
पदार्थ -
हे (वसो) सर्वान्तर्यामिन्, सबके निवासक (अग्ने) जगन्नायक परमात्मन् ! (यः) जो कोई (मर्तः) मनुष्य (राये) विद्या-विवेक-विनय आदि धन के लिए, श्रेष्ठ सन्तानरूप धन के लिए और सुवर्ण आदि धन के लिए (प्र निनीषति) अपने-आपको प्रगति के मार्ग पर ले जाना चाहता है, पुरुषार्थ में नियुक्त करना चाहता है, और (यः) जो (ते) आपके लिए (दाशत्) आत्मसमर्पण करता है, (सः) वह मनुष्य (त्मना) अपने आप (सहस्रपोषिणम्) सहस्रों निर्धनों को धनदान से और सहस्रों अविद्याग्रस्तों को विद्यादान से परिपुष्ट करनेवाले (वीरम्) वीर सन्तान को (धत्ते) प्राप्त करता है ॥४॥
भावार्थ - पुरुषार्थी परमेश्वरोपासक मनुष्य सुयोग्य सन्तान, विद्या, धन, चक्रवर्ती राज्य, मोक्ष आदि बहुत प्रकार के ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेत है ॥४॥
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