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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 59
ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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प्र꣡ वो꣢ य꣣ह्वं꣡ पु꣢रू꣣णां꣢ वि꣣शां꣡ दे꣢वय꣣ती꣡ना꣢म् । अ꣣ग्नि꣢ꣳ सू꣣क्ते꣢भि꣣र्व꣡चो꣢भिर्वृणीमहे꣣ य꣢꣫ꣳसमिद꣣न्य꣢ इ꣣न्ध꣡ते꣢ ॥५९॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣢ । वः꣣ । यह्व꣢म् । पु꣣रूणा꣢म् । वि꣣शा꣢म् । दे꣣वयती꣡ना꣢म् । अ꣣ग्नि꣢म् । सू꣣क्ते꣢भिः꣣ । सु꣣ । उक्थे꣡भिः꣢ । व꣡चो꣢꣯भिः । वृ꣣णीमहे । य꣢म् । सम् । इत् । अ꣣न्ये꣢ । अ꣣न् । ये꣢ । इ꣣न्ध꣡ते꣢ ॥५९॥


स्वर रहित मन्त्र

प्र वो यह्वं पुरूणां विशां देवयतीनाम् । अग्निꣳ सूक्तेभिर्वचोभिर्वृणीमहे यꣳसमिदन्य इन्धते ॥५९॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । वः । यह्वम् । पुरूणाम् । विशाम् । देवयतीनाम् । अग्निम् । सूक्तेभिः । सु । उक्थेभिः । वचोभिः । वृणीमहे । यम् । सम् । इत् । अन्ये । अन् । ये । इन्धते ॥५९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 59
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
प्रथम—परमेश्वर के पक्ष में। (देवयतीनाम्) अपने लिए दिव्य भोग, दिव्य गुण और दिव्य आनन्दों को चाहनेवाली, (पुरूणाम्) बहुत-सी (विशां वः) तुम प्रजाओं के हितार्थ (यह्वम्) गुणों से महान् (अग्निम्) परमेश्वर को, हम (सूक्तेभिः) उत्तम प्रकार से गाये गये (वचोभिः) साम-मन्त्रों तथा अन्य स्तोत्रों से (प्र वृणीमहे) प्रकष्टरूप से भजते हैं, (यम्) जिस परमेश्वर को (अन्ये इत्) अन्य भी भक्तजन (सम् इन्धते) भली-भाँति अपने अन्तःकरणों में प्रदीप्त करते हैं ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। (देवयतीनाम्) अपने लिए विजयाभिलाषी राजा को चाहनेवाली (पुरूणाम्) बहुत-सी (विशां वः) तुम प्रजाओं के मध्य से (यह्वम्) महान् (अग्निम्) अग्नि के समान तेजस्वी वीर पुरुष को, हम (सूक्तैः) भली-भाँति उच्चारित (वचोभिः) उद्बोधक वचनों के साथ (प्र वृणीमहे) प्रकृष्टतया राजपद पर निर्वाचित करते हैं, (यम्) जिस गुणी पुरुष को (अन्ये) अन्य भी राष्ट्रवासी जन (सम् इन्धते) इस पद के लिए समुत्साहित या समर्थित करते हैं ॥५॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥५॥

भावार्थ - जैसे राष्ट्र के उत्कर्ष के लिए राजोचित सकल गुणगणों से विभूषित कोई महान् पुरुष राजपद के लिए चुना जाता है, वैसे ही सुमहान् परमेश्वर को हमें भली-भाँति उच्चारण किये गये स्तुतिवचनों द्वारा मार्गप्रदर्शकरूप में वरण करना चाहिए ॥५॥

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