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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 586
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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इ꣢न्द्र꣣ ज्ये꣡ष्ठं꣢ न꣣ आ꣡ भ꣢र꣣ ओ꣡जि꣢ष्ठं꣣ पु꣡पु꣢रि꣣ श्र꣡वः꣢ । य꣡द्दिधृ꣢꣯क्षेम वज्रहस्त꣣ रो꣡द꣢सी꣣ उ꣢꣯भे सु꣢꣯शिप्र पप्राः ॥५८६॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्र꣢꣯ । ज्ये꣡ष्ठ꣢म् । नः꣣ । आ꣢ । भ꣣र । ओ꣡जि꣢꣯ष्ठम् । पु꣡पु꣢꣯रि । श्र꣡वः꣢꣯ । यत् । दि꣡धृ꣢꣯क्षेम । व꣣ज्रहस्त । वज्र । हस्त । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । उ꣣भे꣡इति꣢ । सु꣣शिप्र । सु । शिप्र । पप्राः ॥५८६॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र ज्येष्ठं न आ भर ओजिष्ठं पुपुरि श्रवः । यद्दिधृक्षेम वज्रहस्त रोदसी उभे सुशिप्र पप्राः ॥५८६॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्र । ज्येष्ठम् । नः । आ । भर । ओजिष्ठम् । पुपुरि । श्रवः । यत् । दिधृक्षेम । वज्रहस्त । वज्र । हस्त । रोदसीइति । उभेइति । सुशिप्र । सु । शिप्र । पप्राः ॥५८६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 586
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1;
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विषय - आदि की तीन ऋचाओं का इन्द्र देवता है। प्रथम मन्त्र में परमात्मा से यश की प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ -
हे (इन्द्र) परम यशस्वी परमात्मन् ! आप (नः) हमें (ज्येष्ठम्) अत्यधिक प्रशंसनीय, (ओजिष्ठम्) अत्यधिक ओजस्वी, (पुपुरि) पूर्णता देनेवाला अथवा पालन करनेवाला (श्रवः) यश (आ भर) प्रदान कीजिए, (यत्) जिस यश को, हम (दिधृक्षेम) धारण करना चाहें। हे (वज्रहस्त) वज्रहस्त के समान यशोबाधक पाप, दुर्व्यसन आदि को चूर-चूर करनेवाले ! हे (सुशिप्र) सर्वव्यापक ! आपने (उभे रोदसी) भूमि-आकाश दोनों को (पप्राः) यश से परिपूर्ण किया हुआ है ॥१॥
भावार्थ - जैसे परमात्मा से रचा हुआ सारा ब्रह्माण्ड यशोमय है, वैसे ही हम भी यशस्वी बनें ॥१॥
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