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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 587
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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इ꣢न्द्रो꣣ रा꣢जा꣣ ज꣡ग꣢तश्चर्षणी꣣ना꣢꣯मधि꣢꣫क्ष꣣मा꣢ वि꣣श्व꣡रू꣢पं꣣ य꣡द꣢स्य । त꣡तो꣢ ददाति दा꣣शु꣢षे꣣ व꣡सू꣢नि꣣ चोद꣢꣫द्राध꣣ उ꣡प꣢स्तुतं चि꣣दर्वा꣢क् ॥५८७॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्रः꣢꣯ । रा꣡जा꣢꣯ । ज꣡ग꣢꣯तः । च꣣र्षणीना꣢म् । अ꣡धि꣢꣯ । क्ष꣣मा꣢ । वि꣣श्व꣡रू꣢पम् । वि꣣श्व꣢ । रू꣣पम् । य꣢त् । अ꣣स्य । त꣡तः꣢꣯ । द꣣दाति । दाशु꣡षे꣢ । व꣡सू꣢꣯नि । चो꣣द꣢त् । रा꣡धः꣢꣯ । उ꣡प꣢꣯स्तुतम् । उ꣡प꣢꣯ । स्तु꣣तम् । चित् । अर्वा꣢क् ॥५८७॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्रो राजा जगतश्चर्षणीनामधिक्षमा विश्वरूपं यदस्य । ततो ददाति दाशुषे वसूनि चोदद्राध उपस्तुतं चिदर्वाक् ॥५८७॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रः । राजा । जगतः । चर्षणीनाम् । अधि । क्षमा । विश्वरूपम् । विश्व । रूपम् । यत् । अस्य । ततः । ददाति । दाशुषे । वसूनि । चोदत् । राधः । उपस्तुतम् । उप । स्तुतम् । चित् । अर्वाक् ॥५८७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 587
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1;
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पदार्थ -
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (जगतः) जगत् के (चर्षणीनाम्) मनुष्यों का (राजा) राजा है। (अधिक्षमा) पृथिवी पर (यत्) जो (विश्वरूपम्) सभी रूपोंवाला धन है, वह (अस्य) इसी का है। (ततः) उसी धन में से, वह (दाशुषे) दानी को (वसूनि) धन (ददाति) देता है। वह (अर्वाक्) हमारी ओर (उपस्तुतं चित्) प्रशंसित ही (राधः) भौतिक धन को एवं योगैश्वर्य को (चोदत्) प्रेरित करे ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। (इन्द्रः) शत्रुओं का विदारणकर्ता, यज्ञशीलों का आदरकर्ता, समस्त सद्गुणों की सम्पत्ति से युक्त ही मनुष्य (जगतः) राष्ट्र के (चर्षणीनाम्) मनुष्यों का (राजा) राजा होने योग्य है। (अधिक्षमा) राष्ट्रभूमि पर (यत्) जो (विश्वरूपम्) सब रूपोंवाला धन का भण्डार (अस्य) इसका है, (ततः) उसमें से, वह (दाशुषे) कर देनेवाले प्रजाजन के लिए (वसूनि) धनों को (ददाति) देवे। वह (उपस्तुतम्) प्रशंसित (राधः) धन को (अर्वाक्) नीची स्थितिवाले निर्धनों की ओर (चोदत्) प्रेरित करे ॥२॥

भावार्थ - जैसे राजराजेश्वर परमेश्वर दानी को धन देता है, वैसे ही मानव-सम्राट् भी कर देनेवाले प्रजावर्ग को सुसमृद्ध करे। इसके लिए भी प्रयत्न करे कि प्रजा में धन की दृष्टि से अधिक विषमता न हो ॥२॥

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