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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 602
ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - प्रजापतिः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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म꣢यि꣣ व꣢र्चो꣣ अ꣢थो꣣ य꣡शोऽथो꣢꣯ य꣣ज्ञ꣢स्य꣣ य꣡त्प꣢꣯यः । पर꣣मेष्ठी꣢ प्र꣣जा꣡प꣢तिर्दि꣣वि꣡ द्यामि꣢꣯व दृꣳहतु ॥६०२॥

स्वर सहित पद पाठ

म꣡यि꣢꣯ । व꣡र्चः꣢꣯ । अ꣡थ꣢꣯ । उ꣣ । य꣡शः꣢꣯ । अ꣡थ꣢꣯ । उ꣣ । यज्ञ꣡स्य꣢ । यत् । प꣡यः꣢꣯ । प꣣रमेष्ठी꣢ । प꣣रमे । स्थी꣢ । प्र꣣जा꣡प꣢तिः । प्र꣣जा꣢ । प꣣तिः । दिवि꣢ । द्याम् । इ꣣व । दृँहतु ॥६०२॥


स्वर रहित मन्त्र

मयि वर्चो अथो यशोऽथो यज्ञस्य यत्पयः । परमेष्ठी प्रजापतिर्दिवि द्यामिव दृꣳहतु ॥६०२॥


स्वर रहित पद पाठ

मयि । वर्चः । अथ । उ । यशः । अथ । उ । यज्ञस्य । यत् । पयः । परमेष्ठी । परमे । स्थी । प्रजापतिः । प्रजा । पतिः । दिवि । द्याम् । इव । दृँहतु ॥६०२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 602
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3;
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पदार्थ -
(परमेष्ठी) सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित (प्रजापतिः) ब्रह्माण्ड की सब प्रजाओं का अधिपति परमात्मा, शरीर की मन, बुद्धि, इन्द्रिय आदि प्रजाओं का पति जीवात्मा और राष्ट्र की प्रजाओं का पति राजा (मयि) मुझ प्रार्थी में (वर्चः) ब्रह्मवर्चस, (अथ उ) और (यशः) कीर्ति, (अथ उ) और (यज्ञस्य) उपासना-यज्ञ का अथवा राष्ट्र-यज्ञ का (यत् पयः) आनन्दरूप वा समृद्धिरूप जो फल है, उसे (दृंहतु) वैसे ही स्थिर करे, (इव) जिस प्रकार (दिवि द्याम्) प्रजापति परमेश्वर आकाश में सूर्य को, प्रजापति जीवात्मा मस्तिष्क में उज्ज्वल विज्ञान को और प्रजापति राजा राष्ट्र में विद्याप्रकाश को स्थिर करता है ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेष और उपमा अलङ्कार है ॥१॥

भावार्थ - परमात्मा की कृपा से, आत्मा के पुरुषार्थ से और राजा के राजधर्मपालन से मनुष्य ब्रह्मवर्चस, यश और यज्ञानुष्ठान के फल को शीघ्र प्राप्त कर सकते हैं ॥१॥

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