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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 614
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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पा꣢त्य꣣ग्नि꣢र्वि꣣पो꣡ अग्रं꣢꣯ प꣣दं꣢꣯ वेः पाति꣢꣯ य꣣ह्व꣡श्चर꣢꣯ण꣣ꣳ सू꣡र्य꣢स्य । पा꣢ति꣣ ना꣡भा꣢ स꣣प्त꣡शी꣢र्षाणम꣣ग्निः꣡ पाति꣢꣯ दे꣣वा꣡ना꣢मुप꣣मा꣡द꣢मृ꣣ष्वः꣢ ॥६१४॥
स्वर सहित पद पाठपा꣡ति꣢꣯ । अ꣣ग्निः꣢ । वि꣣पः꣢ । अ꣡ग्र꣢꣯म् । प꣣द꣢म् । वेः । पा꣡ति꣢꣯ । य꣣ह्वः꣢ । च꣡र꣢꣯णम् । सू꣡र्य꣢꣯स्य । पा꣡ति꣢꣯ । ना꣡भा꣢꣯ । स꣣प्त꣡शी꣢र्षाणम् । स꣣प्त꣢ । शी꣣र्षाणम् । अग्निः꣢ । पा꣡ति꣢꣯ । दे꣣वा꣡ना꣢म् । उ꣣पमा꣡द꣢म् । उ꣣प । मा꣡द꣢꣯म् । ऋ꣣ष्वः꣢ ॥६१४॥
स्वर रहित मन्त्र
पात्यग्निर्विपो अग्रं पदं वेः पाति यह्वश्चरणꣳ सूर्यस्य । पाति नाभा सप्तशीर्षाणमग्निः पाति देवानामुपमादमृष्वः ॥६१४॥
स्वर रहित पद पाठ
पाति । अग्निः । विपः । अग्रम् । पदम् । वेः । पाति । यह्वः । चरणम् । सूर्यस्य । पाति । नाभा । सप्तशीर्षाणम् । सप्त । शीर्षाणम् । अग्निः । पाति । देवानाम् । उपमादम् । उप । मादम् । ऋष्वः ॥६१४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 614
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 3; मन्त्र » 13
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 3; मन्त्र » 13
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3;
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विषय - अगले मन्त्र में परमेश्वर की महिमा का वर्णन है।
पदार्थ -
(विपः) मेधावी (अग्निः) अग्रनायक जगदीश्वर (वेः) पक्षी की अथवा वेगवान् पवन की (अग्रम्) अग्रगामी (पदम्) उड़ान की (पाति) रक्षा करता है। (यह्वः) वही महान् जगदीश्वर (सूर्यस्य) सूर्य के (चरणम्) संवत्सरचक्रप्रवर्तन आदि व्यापार की (पाति) रक्षा करता है। (अग्निः) वही अग्रगन्ता जगदीश्वर (नाभा) केन्द्रभूत हृदय अथवा मस्तिष्क में (सप्तशीर्षाणम्) मन, बुद्धि तथा पञ्च ज्ञानेन्द्रिय रूप सात शीर्षस्थ प्राणों के स्वामी जीवात्मा की (पाति) रक्षा करता है। (ऋष्वः) वही दर्शनीय जगदीश्वर (देवानाम्) विद्वानों के (उपमादम्) यज्ञ की (पाति) रक्षा करता है ॥१३॥ इस मन्त्र में ‘पाति’ की अनेक बार आवृत्ति में लाटानुप्रास अलङ्कार है। पुनः-पुनः ‘पाति’ कहने से यह सूचित होता है कि इसी प्रकार अन्यों के भी कर्मों की जगदीश्वर रक्षा करता है। पूर्वार्ध में पठित भी ‘अग्निः’ पद को उत्तरार्ध में पुनः पठित करने से यह सूचित होता है कि उत्तरार्ध की अर्थयोजना पृथक् करनी है ॥१३॥
भावार्थ - जगदीश्वर ही सूर्य, वायु, पृथिवी, चन्द्र आदि के, जीवात्मा, मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रियों आदि के और सब विद्वान् लोगों के यज्ञमय व्यापार का रक्षक होता है ॥१३॥ इस दशति में प्रजापति, सोम, अग्नि, अपांनपात् एवं इन्द्र नामों से जगदीश्वर की महिमा का वर्णन होने से, तेज और यश की प्रार्थना होने से तथा दिव्य रात्रि का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्वदशति के विषय के साथ संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक में तृतीयार्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ षष्ठ अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥
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