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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 621
ऋषिः - नारायणः देवता - पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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त꣡तो꣢ वि꣣रा꣡ड꣢जायत वि꣣रा꣢जो꣣ अ꣢धि꣣ पू꣡रु꣢षः । स꣢ जा꣣तो꣡ अत्य꣢꣯रिच्यत प꣣श्चा꣢꣫द्भूमि꣣म꣡थो꣢ पु꣣रः꣢ ॥६२१॥

स्वर सहित पद पाठ

त꣡तः꣢꣯ । वि꣣रा꣢ट् । वि꣣ । रा꣢ट् । अ꣣जायत । वि꣣रा꣢जः । वि꣣ । रा꣡जः꣢꣯ । अ꣡धि꣢꣯ । पू꣡रु꣢꣯षः । सः । जा꣣तः꣢ । अ꣡ति꣢꣯ । अ꣣रिच्यत । पश्चा꣢त् । भू꣡मि꣢꣯म् । अ꣡थ꣢꣯ । उ꣣ । पुरः꣢ ॥६२१॥


स्वर रहित मन्त्र

ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः । स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥६२१॥


स्वर रहित पद पाठ

ततः । विराट् । वि । राट् । अजायत । विराजः । वि । राजः । अधि । पूरुषः । सः । जातः । अति । अरिच्यत । पश्चात् । भूमिम् । अथ । उ । पुरः ॥६२१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 621
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
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पदार्थ -
(ततः) उसी निमित्तकारणभूत परम पुरुष परमेश्वर से (विराट्) विशेषरूप से देदीप्यमान पिण्ड (अजायत) उत्पन्न हुआ। (पूरुषः) वह सर्वत्र पूर्ण परमेश्वर ही (विराजः अधि) उस विशेषरूप से देदीप्यमान पिण्ड का अधिष्ठाता था। (जातः सः) उत्पन्न हुआ वह विराट् पिण्ड (अत्यरिच्यत) भूमि आदि खण्डों में बँट गया। वह परमेश्वर (भूमिम्) भूमि आदि लोकों की उत्पत्ति के (पश्चात्) पश्चात् (अथ उ) और (पुरः) पूर्व भी विद्यमान था ॥७॥

भावार्थ - हमारे सौरमण्डल का जन्म कैसे हुआ, यह इस मन्त्र में वर्णित किया गया है। प्रारम्भ में विशाल नीहारिका-रूप देदीप्यमान एक पिण्ड उत्पन्न हुआ। आकाश में वेग के साथ घूमते हुए उसमें से कुछ टुकड़े अलग हो गये। बचा भाग सूर्य हुआ और टूटकर अलग हुए खण्ड भूमि, मङ्गल, बुध, बृहस्पति आदि हो गये। इसी प्रकार अन्य सौरमण्डलों की भी उत्पत्ति हुई, यह जानना चाहिए। यह सब परमात्मा के अधिष्ठातृत्व में ही सम्पन्न हुआ ॥७॥

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