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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 623
ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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ह꣡री꣢ त इन्द्र꣣ श्म꣡श्रू꣢ण्यु꣣तो꣡ ते꣢ ह꣣रि꣢तौ꣣ ह꣡री꣢ । तं꣡ त्वा꣢ स्तुवन्ति क꣣व꣡यः꣢ पु꣣रु꣡षा꣢सो व꣣न꣡र्ग꣢वः ॥६२३

स्वर सहित पद पाठ

ह꣡री꣢꣯ । ते꣣ । इन्द्र । श्म꣡श्रू꣢꣯णि । उ꣣त꣢ । उ꣣ । ते । हरि꣡तौ꣢ । हरी꣣इ꣡ति꣢ । तम् । त्वा꣣ । स्तुवन्ति । कव꣡यः꣢ । प꣣रुषा꣡सः꣢ । व꣣न꣡र्ग꣢वः ॥६२३॥


स्वर रहित मन्त्र

हरी त इन्द्र श्मश्रूण्युतो ते हरितौ हरी । तं त्वा स्तुवन्ति कवयः पुरुषासो वनर्गवः ॥६२३


स्वर रहित पद पाठ

हरी । ते । इन्द्र । श्मश्रूणि । उत । उ । ते । हरितौ । हरीइति । तम् । त्वा । स्तुवन्ति । कवयः । परुषासः । वनर्गवः ॥६२३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 623
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
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पदार्थ -
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली परमात्मन् ! (ते) तेरी रचित (श्मश्रूणि) मूँछों के समान प्रतीत होनेवाली सूर्यकिरणें (हरी) मलिनताओं को हरनेवाली हैं, (उत उ) और (ते) तेरी रचित (हरितौ) पूर्व-पश्चिमरूप, उत्तर-दक्षिणरूप अथवा ध्रुवा-ऊर्ध्वारूप दिशाएँ (हरी) मलिनता को हरनेवाली हैं। (तं त्वा) उस तेरी (वनर्गवः) वनगामी वानप्रस्थ (कवयः परुषासः) मेधावी पुरुष (स्तुवन्ति) स्तुति करते हैं ॥९॥ इस मन्त्र में ‘हरी’ की आवृत्ति में यमक तथा ‘हरी, हरि, हरी’ में वृत्त्यनुप्रास अलङ्कार है। सूर्यकिरणों को श्मश्रु कहने में असम्बन्ध में सम्बन्ध रूप अतिशयोक्ति अलङ्कार है ॥९॥

भावार्थ - परमात्मा द्वारा रचित सूर्य, चन्द्र, तारे, दिशाएँ, विदिशाएँ आदि सभी पदार्थ विलक्षण और उसकी महिमा के प्रकाशक हैं ॥९॥

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