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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 631
ऋषिः - सार्पराज्ञी
देवता - सूर्यः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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अ꣣न्त꣡श्च꣢रति रोच꣣ना꣢꣫स्य प्रा꣣णा꣡द꣢पान꣣ती꣢ । व्य꣢꣯ख्यन्महि꣣षो꣡ दिव꣢꣯म् ॥६३१॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣न्त꣡रिति꣢ । च꣣रति । रोचना꣢ । अ꣣स्य꣢ । प्रा꣣णा꣢त् । प्र꣣ । आना꣢त् । अ꣣पानती꣢ । अ꣣प । अनती꣢ । वि । अ꣣ख्यत् । महिषः꣢ । दि꣡व꣢꣯म् ॥६३१॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तश्चरति रोचनास्य प्राणादपानती । व्यख्यन्महिषो दिवम् ॥६३१॥
स्वर रहित पद पाठ
अन्तरिति । चरति । रोचना । अस्य । प्राणात् । प्र । आनात् । अपानती । अप । अनती । वि । अख्यत् । महिषः । दिवम् ॥६३१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 631
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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विषय - अगले मन्त्र में सूर्य और परमात्मा के तेज का वर्णन है।
पदार्थ -
(अस्य) इस सूर्य वा परमात्मा की (रोचना) दीप्ति (प्राणात्) प्राण-व्यापार के पश्चात् (अपानती) अपान व्यापार कराती हुई (अन्तः) भूमि पर वा हृदय के अन्दर (चरति) विचरती है। यह (महिषः) महान् सूर्य वा परमात्मा (दिवम्) आकाश को वा जीवात्मा को (व्यख्यत्) प्रकाशित करता है ॥५॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है ॥५॥
भावार्थ - जो यह प्राण प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान रूप से शरीर में स्थित हुआ प्राणन, अपानन आदि व्यापार करता है, वह परमेश्वर की ही महिमा से करता है, जैसाकि उपनिषद् के ऋषि ने कहा है—‘परमेश्वर प्राण का भी प्राण है (केन० १।२)। परमेश्वर से रचित सूर्य भी अपनी किरणों से प्राणियों को प्राण प्रदान करता हुआ प्राणापान आदि क्रियाओं में सहायक होता है, जैसाकि प्रश्नोपनिषद् में कहा है—‘यह सूर्य प्रजाओं का प्राण होकर उदित हो रहा है।’ (प्रश्न० १।८) परमेश्वर ही सूर्य के द्वारा आकाशस्थ पिण्डों को भी प्रकाशित करता है ॥५॥
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