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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 636
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - सूर्यः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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प्र꣣त्य꣢ङ् दे꣣वा꣢नां꣣ वि꣡शः꣢ प्र꣣त्य꣡ङ्ङुदे꣢꣯षि꣣ मा꣡नु꣢षान् । प्र꣣त्य꣢꣫ङ् विश्व꣣꣬ꣳ स्व꣢꣯र्दृ꣣शे꣢ ॥६३६॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣣त्य꣢ङ् । प्र꣣ति । अ꣢ङ् । दे꣣वा꣡ना꣢म् । वि꣡शः꣢꣯ । प्र꣣त्य꣢ङ् । प्र꣣ति । अ꣢ङ् । उत् । ए꣣षि । मा꣡नु꣢꣯षान् । प्र꣣त्य꣢ङ् । प्र꣣ति । अ꣢ङ् । वि꣡श्व꣢꣯म् । स्वः꣢꣯ । दृ꣣शे꣢ ॥६३६॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रत्यङ् देवानां विशः प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषान् । प्रत्यङ् विश्वꣳ स्वर्दृशे ॥६३६॥


स्वर रहित पद पाठ

प्रत्यङ् । प्रति । अङ् । देवानाम् । विशः । प्रत्यङ् । प्रति । अङ् । उत् । एषि । मानुषान् । प्रत्यङ् । प्रति । अङ् । विश्वम् । स्वः । दृशे ॥६३६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 636
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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पदार्थ -
हे परमात्मारूप सूर्य ! आप (देवानाम्) विद्या के प्रकाशक आचार्यों की (विशः) प्रजाओं अर्थात् पढ़े हुए स्नातकों के (प्रत्यङ्) अभिमुख होते हुए और (मानुषान्) अन्य मननशील मनुष्यों के (प्रत्यङ्) अभिमुख होते हुए (उदेषि) उनके अन्तःकरणों में प्रकट होते हो और (विश्वम्) सभी वर्णाश्रमधर्मों का पालन करनेवाले जनों के (प्रत्यङ्) अभिमुख होते हुए आप (दृशे) कर्तव्याकर्तव्य को देखने के लिए (स्वः) ज्ञानरूप ज्योति प्रदान करते हो ॥ भौतिक सूर्य भी (देवानां विशः) पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश रूप देवों की प्रजाओं मिट्टी, पत्थर, पर्वत, नदी, वृक्ष, वनस्पति आदियों के (प्रत्यङ्) अभिमुख होता हुआ और (मानुषान्) मनुष्यों के (प्रत्यङ्) अभिमुख होता हुआ उदय को प्राप्त होता है और (विश्वम्) समस्त सोम, मङ्गल, बुध, बृहस्पति आदि ग्रहोपग्रहों के (प्रत्यङ्) अभिमुख होता हुआ (दृशे) हमारे देखने के लिए (स्वः) ज्योति प्रदान करता है ॥१०॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘प्रत्यङ्’ की आवृत्ति में लाटानुप्रास है ॥१०॥

भावार्थ - जैसे सूर्य सब पदार्थों को अपनी किरणों से प्राप्त होकर प्रकाशित करता है, वैसे ही जगदीश्वर समस्त चेतन-अचेतनों को प्रकाशित करता है और सबके हृदय में ज्ञान-प्रकाश को सञ्चारित करता है ॥१०॥

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