Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 661
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
5
तं꣡ त्वा꣢ स꣣मि꣡द्भि꣢रङ्गिरो घृ꣣ते꣡न꣢ वर्धयामसि । बृ꣣ह꣡च्छो꣢चा यविष्ठ्य ॥६६१॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । त्वा꣣ । समि꣡द्भिः꣢ । सम् । इ꣡द्भिः꣢꣯ । अ꣣ङ्गिरः । घृ꣡ते꣢न । व꣣र्द्धयामसि । बृह꣢त् । शो꣣च । यविष्ठ्य ॥६६१॥
स्वर रहित मन्त्र
तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि । बृहच्छोचा यविष्ठ्य ॥६६१॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । त्वा । समिद्भिः । सम् । इद्भिः । अङ्गिरः । घृतेन । वर्द्धयामसि । बृहत् । शोच । यविष्ठ्य ॥६६१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 661
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
विषय - अगले मन्त्र में यज्ञाग्नि, आत्माग्नि तथा परमात्माग्नि को सम्बोधन किया गया है।
पदार्थ -
प्रथम—यज्ञाग्नि के पक्ष में। हे (अङ्गिरः) चंचल ज्वालावाले यज्ञाग्नि ! (तं त्वा) उस तुझको, हम (समिद्भिः) समिधाओं से, और (घृतेन) घृत से (वर्धयामसि) बढ़ाते हैं। हे (यविष्ठ्य) अतिशय युवा अग्ने ! तू (बृहत्) बहुत अधिक (शोच) चमक ॥ द्वितीय—जीवात्मा के पक्ष में। मनुष्य अपने अन्तरात्मा को उद्बोधन दे रहा है—हे (अङ्गिरः) कर्मशील मेरे अन्तरात्मन् ! (तं त्वा) उस बहुत कर्म करने में समर्थ तुझे, हम (समिद्भिः) ज्ञानरूप समिधाओं से और (घृतेन) सत्कर्मरूप घृत से (वर्धयामसि) बढ़ाते हैं। हे (यविष्ठ्य) अतिशय तरुण ! तू संसार में (बृहत्) बहुत अधिक (शोच) चमक ॥ तृतीय—परमात्मा के पक्ष में। हे (अङ्गिरः) प्राणप्रिय परमात्मन् ! (तं त्वा) सब कर्मों में समर्थ उन आपको हम (समिद्भिः) प्रदीप्त करने के साधन योगाङ्गों से और (घृतेन) स्नेहयुक्त भक्तिभावों से, अपने अन्तःकरण में (वर्धयामसि) बढ़ाते हैं। हे (यविष्ठ्य) सर्वातिशय समृद्ध भगवन् ! तुम, हमारे अन्तःकरण में (बृहत्) अधिक (शोच) चमको ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिए कि यज्ञाग्नि को प्रदीप्त [और संवृद्ध करके स्वयं भी तेज से प्रदीप्त] तथा संवृद्ध हों। इसी प्रकार अपने अन्तरात्मा को उद्बोधन देकर निर्भ्रान्त ज्ञानराशि का संचय करके महान् कीर्ति प्राप्त करें और योगाभ्यास एवं भक्ति से परमात्मा-रूप अग्नि को अपने आत्मा में प्रदीप्त करें ॥२॥
इस भाष्य को एडिट करें