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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 661
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    23

    तं꣡ त्वा꣢ स꣣मि꣡द्भि꣢रङ्गिरो घृ꣣ते꣡न꣢ वर्धयामसि । बृ꣣ह꣡च्छो꣢चा यविष्ठ्य ॥६६१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त꣢म् । त्वा꣣ । समि꣡द्भिः꣢ । सम् । इ꣡द्भिः꣢꣯ । अ꣣ङ्गिरः । घृ꣡ते꣢न । व꣣र्द्धयामसि । बृह꣢त् । शो꣣च । यविष्ठ्य ॥६६१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि । बृहच्छोचा यविष्ठ्य ॥६६१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । त्वा । समिद्भिः । सम् । इद्भिः । अङ्गिरः । घृतेन । वर्द्धयामसि । बृहत् । शोच । यविष्ठ्य ॥६६१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 661
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    अगले मन्त्र में यज्ञाग्नि, आत्माग्नि तथा परमात्माग्नि को सम्बोधन किया गया है।

    पदार्थ

    प्रथम—यज्ञाग्नि के पक्ष में। हे (अङ्गिरः) चंचल ज्वालावाले यज्ञाग्नि ! (तं त्वा) उस तुझको, हम (समिद्भिः) समिधाओं से, और (घृतेन) घृत से (वर्धयामसि) बढ़ाते हैं। हे (यविष्ठ्य) अतिशय युवा अग्ने ! तू (बृहत्) बहुत अधिक (शोच) चमक ॥ द्वितीय—जीवात्मा के पक्ष में। मनुष्य अपने अन्तरात्मा को उद्बोधन दे रहा है—हे (अङ्गिरः) कर्मशील मेरे अन्तरात्मन् ! (तं त्वा) उस बहुत कर्म करने में समर्थ तुझे, हम (समिद्भिः) ज्ञानरूप समिधाओं से और (घृतेन) सत्कर्मरूप घृत से (वर्धयामसि) बढ़ाते हैं। हे (यविष्ठ्य) अतिशय तरुण ! तू संसार में (बृहत्) बहुत अधिक (शोच) चमक ॥ तृतीय—परमात्मा के पक्ष में। हे (अङ्गिरः) प्राणप्रिय परमात्मन् ! (तं त्वा) सब कर्मों में समर्थ उन आपको हम (समिद्भिः) प्रदीप्त करने के साधन योगाङ्गों से और (घृतेन) स्नेहयुक्त भक्तिभावों से, अपने अन्तःकरण में (वर्धयामसि) बढ़ाते हैं। हे (यविष्ठ्य) सर्वातिशय समृद्ध भगवन् ! तुम, हमारे अन्तःकरण में (बृहत्) अधिक (शोच) चमको ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिए कि यज्ञाग्नि को प्रदीप्त [और संवृद्ध करके स्वयं भी तेज से प्रदीप्त] तथा संवृद्ध हों। इसी प्रकार अपने अन्तरात्मा को उद्बोधन देकर निर्भ्रान्त ज्ञानराशि का संचय करके महान् कीर्ति प्राप्त करें और योगाभ्यास एवं भक्ति से परमात्मा-रूप अग्नि को अपने आत्मा में प्रदीप्त करें ॥२॥

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    पदार्थ

    (अङ्गिरः-यविष्ठ्य) हे अङ्गों को प्रेरित करने वाले अत्यन्त मिलाने वालों में श्रेष्ठ परमात्मन्! (तं त्वा) उस तुझ को (समद्भिः-घृतेन वर्धयामसि) प्राणों से प्राणायामों—इन्द्रियों के सद्व्यवहारों से “प्राणा वै समिधः” [ऐ॰ २.४] और आत्मतेज से बढ़ाते हैं (बृहत्-शोच) तू हमारे अन्दर बहुत प्रकाशित हो।

    भावार्थ

    अङ्गों को प्रेरित करनेवाला मेल करनेवालों में सबसे अधिक मिलनसार परमात्मा को प्राणपण से प्राणायामों इन्द्रिय संयमों और स्वकीय आत्मभाव से अपने अंदर बढ़ावें तो वह हमारे अंदर बहुत प्रकाशमानरूप में साक्षात् होता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    समिधाओं और घृत से

    पदार्थ

    हे (अङ्गिरः)=हमारे अंगों के रसभूत प्रभो! (तं त्वा)=उस आपको हम (समिद्भिः)=समिधाओं से (वर्धयामसि)=बढ़ाते हैं। जैसे अग्निहोत्र में समिधाएँ डाली जाती हैं, उसी प्रकार उपासनायज्ञ की समिधाएँ अथर्व के(‘इयं समित् पृथिवी द्यौर्द्वितीयोतान्तरिक्षं समिधा पृणाति') इस मन्त्र में 'पृथिवी, द्युलोक और अन्तरिक्ष' इस रूप में कही गयी हैं। पृथिवीस्थ पदार्थों का ज्ञान हमें अधिकाधिक प्रभु की महिमा को दिखलाता है। हिमाच्छादित पर्वतों के शिखर, समुद्र व मीलों-मील फैली मरुभूमि सभी प्रभु की महिमा का स्मरण कराते हैं । इसी प्रकार अन्तरिक्ष में उमड़ते हुए बादल व बहती हुई द दिलाती हैं, तो आकाश में चमकता हुआ सूर्य व बिखरे हुए तारे तो प्रभु की मानो स्तुति ही कर रहे हैं। इन सब पदार्थों के ज्ञान से हमारे मस्तिष्क में प्रभु की महिमा की छाप अधिकाधिक दृढ़रूप से अंकित हो जाती है। यही प्रभु का वर्धन है ।

    (घृतेन) = घृत के द्वारा प्रभु के ज्ञान की अपने अन्दर वृद्धि करने के लिए ज्ञानरूप समिधाओं के साथ घृत=मानसमल-क्षरण [घृ-क्षरण] की भी आवश्यकता है। ज्ञान प्राप्ति के साथ हम अपने हृदयों को पवित्र बनाने का भी प्रयत्न करें। उज्ज्वल मस्तिष्क तथा पवित्र हृदय ये दोनों संगत होकर ही हमें प्रभु-दर्शन के योग्य बनाएँगे। अग्नि के वर्धन में घृत का जो स्थान है, वही प्रभु-दर्शन में मानसमल-क्षरण का। हम ज्ञान नैर्मल्य से प्रभु-दर्शन के लिए सन्नद्ध होंगे तो वे प्रभु हमें अधिक उज्ज्वल व निर्मल बना देंगे, अतः मन्त्र में कहते हैं कि – हे प्रभो ! (बृहत् शोच) = खूब ही दीप्त कर दीजिए। सहस्रों सूर्यों की ज्योति के समान आपकी ज्योति उदित होने पर भी क्या अन्धकार रह सकेगा? (यविष्ठ्य)=आप राग-द्वेषादि मलों को हमसे पृथक् करनेवालों में सर्वोत्तम हैं [यु-पृथक् करना, इष्ठ] = सबसे अधिक ।

    भावार्थ

    ज्ञान व नैर्मल्य [समिधा+घृत] से मैं प्रभु-दर्शन करके ज्ञानमय व निर्मल बन जाऊँ ।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = ( अङ्गिरः ) = हे प्रकाशमान  ( यविष्ठ्य ) = अति बलयुक्त प्रभो! ( तं त्वा ) = वेदों में प्रसिद्ध आपको  ( समिद्भिः ) = ध्यान आदि साधनों से तथा  ( घृतेन ) = आप  में स्नेह प्रेमभक्ति से  ( वर्धयामसि ) = अपने हृदय में प्रत्यक्ष जानें और आप  ( बृहत् शोच ) = बहुत प्रकाश करें । 

    भावार्थ

    भावार्थ = हे परमात्मन्! जो आपके प्यारे भक्त जन, अपने हृदय में आपकी प्रेमपूर्वक भक्ति उपासना में तत्पर हैं , उनको ही आपका यथार्थ ज्ञान होता है,
     उनके हृदय में ही आप अच्छी तरह से प्रकाशित हुए अविद्यादि अन्धकार को नष्ट कर उन्हें सुखी करते हैं, आपकी भक्ति के बिना तो प्रकृति में फँसकर आपकी वैदिक आज्ञा से विरुद्ध चलते मूर्ख संसारी लोग, अनेक नीच योनियों में भटकते-भटकते सदा दुःखी ही रहते हैं ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    ( २ ) हे ( अंगिरः ) = प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! ( तं ) = उस प्रसिद्ध ( त्वां ) = तुझ परमेश्वर को ( समिद्भिः ) = दीप्ति के साधन ज्ञानों और ( घृतेन ) = देदीप्यमान तेज से ( वर्धयामसि ) = हम आपको बढ़ाते हैं, आपकी विशालता प्रकट करते हैं, अतः हे ( यविष्ठ्य ) = सबसे अधिक सामर्थ्य वाले ! सर्वशक्तिमन् ! ( बृहत् ) = आप अति अधिक ( शोच ) = हृदय में प्रकाशित हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - भरद्वाज:। देवता - अग्निः। छन्दः - गायत्री। स्वरः - षड्जः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ यज्ञाग्निमात्माग्निं परमात्मात्माग्निं च सम्बोधयति।

    पदार्थः

    प्रथमः—यज्ञाग्निपरः। हे (अङ्गिरः) चपलज्वाल यज्ञाग्ने ! [अगि गतौ। यः अङ्गति गच्छति सोऽङ्गिराः, तत्सम्बुद्धौ अङ्गिरः इति। अगि धातोः अङ्गिराः। उ० ४।२३७ इति निपातनाद् असिप्रत्ययः इरुडागमश्च।] (तं त्वा) तादृशं त्वाम्, वयम् (समिद्भिः) काष्ठैः (घृतेन) आज्येन च (वर्धयामसि) वर्धयामः। हे (यविष्ठ्य२) युवतम ! (अतिशयेन युवा यविष्ठः, यविष्ठ एव यविष्ठ्यः, स्वार्थे यत्।) त्वम् (बृहत्) अत्यधिकम् (शोच) दीप्यस्व ॥ द्वितीयः—जीवात्मपरः। स्वात्मानं समुद्बोधयति—हे (अङ्गिरः) कर्मशील मदीय अन्तरात्मन् ! (तं त्वा) तादृशं बहुकर्मक्षमं त्वाम् वयम् (समिद्धिः) ज्ञानेन्धनैः (घृतेन) सत्कर्मरूपेण आज्येन च (वर्धयामसि) वर्धयामः। हे (यविष्ठ्य) तरुणतम ! त्वम्, संसारे (बृहत्) अत्यधिकम् (शोच) प्रदीप्यस्व ॥ तृतीयः—परमात्मपरः। हे (अङ्गिरः) प्राणप्रिय परमात्मन् ! (तं त्वा) तादृशं सर्वकर्मसमर्थं त्वाम्, वयम् (समिद्धिः) समिन्धनसाधनैः योगाङ्गैः घृतैः स्नेहयुतैः भक्तिभावैश्च, स्वान्तःकरणे (वर्धयामसि) वर्धयामः। हे (यविष्ठ्य) समृद्धतम भगवन्। त्वम् अस्मदन्तःकरणे (बृहत्) अत्यधिकम् (शोच) दीप्यस्व३ ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यज्ञाग्निं समिध्य संवर्ध्य च स्वयमपि तेजसा समिद्धैः संवृद्धैश्च भाव्यम्। तथैव मनुष्यैः स्वात्मानमुद्बोध्य निर्भ्रान्तं ज्ञानराशिं संचित्य महोज्ज्वलानि कर्माणि कृत्वा महती कीर्तिः प्राप्तव्या। अथ च योगाभ्यासैः भक्त्या च परमात्माग्निः स्वात्मनि प्रदीपनीयः ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ६।१६।११, य० ३।३। २. यविष्ठ्यः अतिशयेन बलवान्—इति वि०। ३. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये वाचकलुप्तोपमामाश्रित्य ये राजादयो जनाः घृतेनाग्निमिव शिक्षासत्काराभ्यां शूरान् वर्धयन्ति ते सदा विजयमाप्नुवन्तीत्यादिरूपेण, यजुर्भाष्ये, ‘भौतिकोऽग्निर्होमशिल्पविद्यासिद्धये साधनैरिन्धनादिभिर्नित्यं वर्धनीय इत्यादिरुपेण’ व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Omnipresent God, we magnify Thee through Yogic practices and love. O Omnipotent God, shine fully in our hearts !

    Translator Comment

    See Yajurveda 3-3. There the interpretation Is different.

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    Meaning

    Angira, breath of life, light of the world, expansive, lustrous pure and most youthful, we honour and exalt you with offers of fuel and ghrta to raise the flames of fire to the heights. (Rg. 6-16-11)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अङ्गिरः यविष्ठ्य) હે અંગોને પ્રેરિત કરનાર અત્યંત મેળ કરનારમાં શ્રેષ્ઠ પરમાત્મન્ ! (तं त्वा) તે તને (समिद्धिं घृतेन वर्धयामसि) પ્રાણોથી પ્રાણાયામો-ઇન્દ્રિયોના સદ્ વ્યવહારોથી અને આત્મતેજ વધારીએ છીએ (बृहत् शोच) તું અમારી અંદર અત્યંત પ્રકાશમાન થા. (૨)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : અંગોને પ્રેરિત કરનાર, મેળ કરનારમાં સર્વથી અધિક મિલનસાર પરમાત્માને પ્રાણાર્પણથી પ્રાણાયામો-ઇન્દ્રિય સંયમો અને પોતાના આત્મભાવથી પોતાની અંદર વૃદ્ધિ કરીએ-વધારીએ તો તે અમારી અંદર મહાન પ્રકાશમાન રૂપમાં સાક્ષાત્ થાય છે. (૨)
     

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    তং ত্বা সমিদ্ভিরঙ্গিরো ঘৃতেন বর্ধয়ামসি ।

    বৃহচ্ছোচা যবিষ্ঠ্য।।৩৯।।

    (সাম ৬৬১)

    পদার্থঃ (অঙ্গিরঃ) হে প্রকাশমান (যবিষ্ঠ্য) পরম বলবান ঈশ্বর! (তম্ ত্বা) বেদে প্রসিদ্ধ তোমাকে (সমিদ্ভিঃ) ধ্যানাদি সাধন তথা (ঘৃতেন) তোমার প্রতি প্রেম ভক্তির দ্বারা (বর্ধয়ামসি) নিজের হৃদয়ে প্রত্যক্ষরূপে জানতে পারি এবং তুমি (বৃহৎ শোচ) বহু জ্ঞান হৃদয়ে প্রকাশিত করো। 

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে পরমাত্মা! যে তোমার প্রিয় উপাসক নিজ হৃদয়ে তোমার প্রেমপূর্বক ভক্তি উপসনায় তৎপর থাকে, তারই যথার্থ জ্ঞান হয়ে থাকে। তার হৃদয়েই তুমি সঠিকরূপে প্রকাশিত হয়ে অবিদ্যাদি অন্ধকারকে নষ্ট করে তাকে সুখী করো। তোমার উপাসনা ছাড়া প্রকৃতিতে বন্ধন দ্বারা আবদ্ধ হয়ে তোমার বৈদিক আজ্ঞার বিরুদ্ধে চলতে চলতে মূর্খ সংসারী লোক নিচ যোনীতে জন্ম নিয়ে কর্মফল ভুগতে ভুগতে সদা দুঃখেই থেকে যায় ।।৩৯।।

     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी यज्ञाग्नीला प्रदीप्त (संवृद्ध करून स्वत:ही तेजाने प्रदीप्त) व संवृद्ध व्हावे. याचप्रकारे आपल्या अंतरात्म्याला उद्बोधन करून निर्भ्रान्तज्ञानराशीचा संचय करून महान कीर्ती प्रस्थापित करावी व योगाभ्यास व भक्तीने परमात्मरूपी अग्नीला आपल्या आत्म्यात प्रदीप्त करावे. ॥२॥

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    विषय

    पुढील मंत्रात यज्ञाग्नी, आत्मग्नी आणि परमात्माग्नी याविषयी सांगितले आहे.

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ - यज्ञाग्निपक्षीं) (अन्दिर:) हे चंचल ज्वाला असणाऱ्या यज्ञाग्नी, (तं त्वा) अशा तुला आम्ही याज्ञिक जन (समिभ्दि:) समिधांद्वारे आणि (घृतेन) घृताद्वारे (वर्धयामसि) वाढवत आहोत. (यविष्ठच) अत्यंत युवा म्हणजे प्रदीप्त झालेया हे अग्नी तू (बृहव्) भरपूर, अव्यधिक (शोच) प्रज्वलित व चमकत राहा. द्वितीय अर्थ : (जीवात्म्यापक्षी) याज्ञिक मनुष्य आपल्या अंत:करणाला उद्देशून म्हणत आहे (अडि:र:) हे माझ्या कर्मशील आत्मा (तं त्वा) की जो कर्म करण्यात अतिशय दक्ष व उत्साही आहे, अशा तुला मी वा आम्ही याज्ञिकजन (समिद्भि:) ज्ञानरूप समिधांद्वारे आणि (घृतेन) सत्कर्मरूप गृताद्वारे (वर्धयामसि) वाढवितो (म्हणजे ज्ञान आणि तद्नुरूप आचरण केल्याने अंत:करण सत्कर्म करण्यास अधिकच वृद्धिंगत होते (यविष्ठ्य) हे अतिशय तरूण म्हणजे सदैव उत्साही, उद्योगी असणाऱ्या माझ्या मना, तू या जगात, समाजात (बृहत्) उरधिक याहून अधिक (शोच) चमक म्हणजे कीर्ती प्राप्त कर।। तृतीय अर्थ - (परमात्मपक्षी) (अहिर:) हे प्राणप्रिय परमेश्वरा, (तं त्वा) सर्व कर्म करण्यास समर्थ असलेल्या तुला आम्ही (सभिद्भि:) योग साधन रूप समिधांद्वारे आणि (घृतेन) स्नेहमय भक्तिभावाद्वारे आमच्या अंत:करणात (वर्धयामसि) वाढवितो (योग व भक्तीद्वारे तुझी भक्ती अधिक दृढ करतो) (यविष्ठ्य) सर्वांहून समृद्ध ऐश्वर्यशाली परमेश्वरा तू आमच्या अंत:करणात बृहत् अधिकाधिक (शोच) चमक (म्हणजे तुझा भक्तिभाव आमच्या हृदयात वाढत जावो व आम्हास प्रोत्साहित करो) ।।२।।

    भावार्थ

    सर्व मनुष्यांचे कर्तव्य आहे की त्यांनी यज्ञाग्नी प्रदीप्त करावा आणि त्या ज्वालामय अग्नीप्रमाणे आपले हृदयही तेजस्वी करावे. तसेच सर्वांनी आपल्या अंतरात्म्यास उद्बोधन देत देत निर्भान्त ज्ञान संचित करीत जावे आणि योगाभ्यास व भक्तीद्वारे परमात्मरूप अग्नी आपल्या आत्म्यात प्रदीप्त करावा (म्हणजे हृदयी ईश्वर दृढ, दृढतर, दृढत्म होत जाईल) ।।२।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. (अडिर:, समिदि, घृतेन, यविष्ठ्य या शब्दांचे त्या त्या पक्षी तीन वेगवेगळे अर्थ आहेत. करीता येथे श्लेष अलंकार आहे. ।।२।।

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