Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 662
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
23
स꣡ नः꣢ पृ꣣थु꣢ श्र꣣वा꣢य्य꣣म꣡च्छा꣢ देव विवाससि । बृ꣣ह꣡द꣢ग्ने सु꣣वी꣡र्य꣢म् ॥६६२॥
स्वर सहित पद पाठसः꣢ । नः꣣ । पृ꣢थु । श्र꣣वा꣡य्य꣢म् । अ꣡च्छ꣢꣯ । दे꣣व । विवाससि । बृह꣢त् । अ꣣ग्ने । सु꣡वी꣢र्यम् । सु꣣ । वी꣡र्य꣢꣯म् ॥६६२॥
स्वर रहित मन्त्र
स नः पृथु श्रवाय्यमच्छा देव विवाससि । बृहदग्ने सुवीर्यम् ॥६६२॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । नः । पृथु । श्रवाय्यम् । अच्छ । देव । विवाससि । बृहत् । अग्ने । सुवीर्यम् । सु । वीर्यम् ॥६६२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 662
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में पुनः यज्ञाग्नि, आत्माग्नि और परमात्माग्नि को सम्बोधन करते हैं।
पदार्थ
हे (देव) उत्तम प्रकाशक (अग्ने) भौतिक अग्नि, अन्तरात्मन् और परमात्मन् ! (सः) वह प्रसिद्ध, तू (नः अच्छ) हमारी ओर (पृथु) विस्तीर्ण, (श्रवाय्यम्) कीर्तिजन, (बृहत्) प्रचुर, तथा (सुवीर्यम्) श्रेष्ठ बल-युक्त भौतिक एवं आध्यात्मिक ऐश्वर्य (विवाससि) प्रेरित कर ॥३॥
भावार्थ
भौतिक अग्नि जैसे यज्ञ में और शिल्पकर्म में उपयोग करने पर स्वास्थ्य, धन, धान्य आदि प्राप्त कराता है, वैसे ही आत्माग्नि उद्बोधन देने पर तथा परमात्माग्नि उपासना करने पर महान् अध्यात्मसम्पत्ति प्रदान करता है ॥३॥
पदार्थ
(सः-अग्ने देव) वह तू ज्ञानप्रकाशक परमात्मदेव! (नः) हमारे लिए (पृथु बृहत् सुवीर्यं श्रवाय्यम्) महान् “पृथु महान्” [निरु॰ १२.२६] ज्येष्ठ श्रेष्ठ “ज्येष्ठं वै बृहत्” [ऐ॰ ८.२] सुनने योग्य प्रशंसनीय शोभनबल—अध्यात्म या दिव्य आयु मोक्ष आयु “आयुर्वीर्यंहिरण्यम्” [मै॰ १.७.५] को (अच्छा विवाससि) सम्यक् सम्पादित करता है “विवासतिः परिचर्यायाम्” [निरु॰ ११.१३]।
भावार्थ
परमात्मा हम उपासकों के लिए महान् श्रेष्ठ परम्परा से प्रसिद्ध दिव्य आयु मोक्ष को सम्यक् सम्पादित करता है॥३॥
विशेष
<br>
विषय
विस्तृत ज्ञानवर्धक शक्ति
पदार्थ
हे (देव) = ज्योतिर्मय प्रभो ! (सः) = आप (नः) = हमें (अच्छ) = सम्यक् तथा (पृथु) = विस्तृत श्(रवाय्यम्)-ज्ञान को विवाससि =[विवासयसि] विशेषरूप से धारण कराते हो और इस प्रकार श्रवाय्यम् यज्ञ में बलि दे देने के योग्य काम-क्रोध आदि वासनारूप पशुओं को [काम: पशुः, क्रोधः पशुः = उप० ] (विवाससि) = हमसे दूर भगा देते हो । ज्ञान का परिणाम वासना- विध्वंस होना ही चाहिए।
हे अग्ने-आगे ले-चलनेवाले प्रभो ! हमें ज्ञान से पवित्र बनाकर वह (सुवीर्यम् )= उत्तम शक्ति प्राप्त कराइए जोकि बृहत् = सभी दृष्टियों से हमारी वृद्धि का कारण बनती है। बिना शक्ति के गुणों का वास नहीं होता । वीरता ही वरता को प्राप्त कराती है ।
भावार्थ
ज्ञान और शक्ति को प्राप्त करके हम 'भरद्वाज-बार्हस्पत्य' बनें ।
टिप्पणी
सूचना–‘ श्रवाय्यम्' शब्द के दो अर्थ हैं— १. ज्ञान और २. यज्ञ में बलि देने योग्य पशु । यहाँ मन्त्रार्थ में दोनों ही अर्थ लिये गये हैं। ज्ञान के द्वारा काम-क्रोधादि वासनारूप पशुओं का नाश हो जाता है। ‘यज्ञ में उनकी बलि दे दी जाती है' इस वाक्य का अभिप्राय यह है कि मनुष्य वासनाओं की बलि देकर ही यज्ञ में प्रवृत होता है। । २. ‘विवाससि’ शब्द के भी दो अर्थ हैं— १. धारण कराते हो और २. दूर नष्ट करते हो [Vanish]। वे प्रभु ज्ञान को धारण कराकर वासनाओं को दूर करानेवाले हैं ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = (३) हे देव ! अग्ने ! विद्वन् ! प्रभो ! आप हमें ( पृथु ) = अति विशाल ( बृहत् ) = बड़े, ( सुवीर्यं ) = उत्तम सामर्थ्य युक्त ( श्रवाय्यं ) = श्रवण करने योग्य वेदज्ञान को ( अच्छ ) = भली प्रकार ( विवाससि ) = प्रकट करें।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाज:। देवता - अग्निः। छन्दः - गायत्री। स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि यज्ञाग्निमात्माग्निं परमात्माग्निं च सम्बोधयति।
पदार्थः
हे (देव) सुप्रकाशक (अग्ने) भोतिकाग्ने, अन्तरात्मन्, परमात्मन् वा ! (सः) प्रसिद्धः त्वम् (नः अच्छ) अस्मान् प्रति (पृथु) विपुलम्, (श्रवाय्यम्) कीर्तिजनकम्। [श्रावयतीति श्रवाय्यः। श्रु धातोः ‘श्रुदक्षिस्पृहिगृहिभ्य आय्यः उ० ३।९६’ इति आय्यप्रत्ययः।] (बृहत्) महत्। (सुवीर्यम्) सुवीर्योपेतम् भौतिकाध्यात्मिकं धनम् (विवाससि२) परिचर प्रेषय इत्यर्थः। विवासतिः परिचर्याकर्मा। निघं० ३।५, विध्यर्थे लेट् परिचरणं चात्र प्रापणम् ॥३॥३
भावार्थः
भौतिकाग्निर्यथा यज्ञे शिल्पकर्मणि च योजितः स्वास्थ्यधनधान्यादिकं प्रापयति तथैवात्माग्निरुद्बोधितः परमात्माग्निश्चोपासितो महतीमध्यात्मसम्पदं प्रयच्छति ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋग्वेद ६।१६।१२ २. विवाससि.... दीप्तिकरोषि—इति वि०। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं मनुष्यैः परस्परं कथं वर्तितव्यमिति विषये व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, grant us magnificently, the vast, grand, potent knowable knowledge of the Vedas.
Meaning
Agni, lord of light and lustre, mighty expansive power, you bless us graciously with admirable strength and courage worthy of universal honour and fame. (Rg. 6-16-12)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सः अग्ने देव) તે તું જ્ઞાન પ્રકાશક પરમાત્મદેવ ! (नः) અમારે માટે (पृथु बृहत् सुवीर्यं श्रवाप्यम्) પૃથુ = મહાન, બૃહત્ = જ્યેષ્ઠ = શ્રેષ્ઠ શ્રવણ યોગ્ય પ્રશંસનીય શોભનબળ-અધ્યાત્મ અર્થાત્ દિવ્ય આયુ મોક્ષ આયુને (अच्छा विवाससि) સારી રીતે સંપાદિત કરે છે. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મા અમને-ઉપાસકોને માટે મહાન, શ્રેષ્ઠ, પરંપરાથી પ્રસિદ્ધ દિવ્ય આયુ મોક્ષને સારી રીતે સંપાદિત કરે છે-આપે છે. (૩)
मराठी (2)
भावार्थ
भौतिक अग्नी जसा यज्ञात व शिल्पकर्मात प्रयुक्त केल्यास स्वास्थ्य, धन, धान्य इत्यादी प्राप्त करवितो. तसेच आत्माग्नी उद्बोधन दिल्यानंतर व परमात्मग्नी उपासना केल्यानंतर महान अध्यात्मसंपत्ती प्रदान करतो. ॥३॥
विषय
पुढच्या मंत्रात पुन्हा यज्ञाग्नी, आत्माग्नी आणि परमात्माग्नीला संबोधून म्हटले आहे.
शब्दार्थ
हे (देव) उत्तम प्रकाशक (अग्ने) आग/अंतरात्मा आणि परमेश्वर (स:) तो सर्व प्रसिद्ध असलेला तू (न: अच्छ) आमच्या दिशेने (पृथु) विस्तीर्ण, भरपूर आणि (श्रवाय्यम्) कीर्तिदायक तसेच (बृहत्) अव्यधिक व (सुवीर्य्यम्) श्रेष्ठ बलयुक्त भौतिक आत्मिक आणि आध्यात्मिक ऐश्वर्य (विवाससि) पाठव, उन्नत कर, प्रेरित कर (येथे तीनही अर्थ एकत्रच दिले. कारण प्रसंगाने तो अर्थ आपोआप स्पष्ट होत आहे. भौतिक अग्नीने आम्हास उत्तम धन द्यावे. आत्म्याने सुविचाररूप धन द्यावे आणि परमेश्वराने सत्कर्माविषयी प्रेरणा द्यावी. ।।३।।
भावार्थ
भौतिक अग्नीत म्हणजे यज्ञाग्नीत आहुतीत सत्त्वशिल्पकलादी मध्ये श्रम-कौशल्य दाखविल्यास माणसाला उत्तम प्रकृती, धन-धान्यादी प्राप्त होतात. त्याचप्रमाणे उद्बोधनामुळे आत्मग्नी प्रज्वलित होतो व उपासना केल्याने परमात्म अग्नी महान आध्यात्मिक संपदा प्रदान करतो. ।।३।।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal