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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 660
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
51
अ꣢ग्न꣣ आ꣡ या꣢हि वी꣣त꣡ये꣢ गृणा꣣नो꣢ ह꣣व्य꣡दा꣢तये । नि꣡ होता꣢꣯ सत्सि ब꣣र्हि꣡षि꣢ ॥६६०॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ग्ने꣢꣯ । आ । या꣣हि । वीत꣡ये꣢ । गृ꣣णानः꣢ । ह꣣व्य꣡दा꣢तये । ह꣣व्य꣢ । दा꣣तये । नि꣢ । हो꣡ता꣢꣯ । स꣣त्सि । बर्हि꣡षि꣢ ॥६६०॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये । नि होता सत्सि बर्हिषि ॥६६०॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने । आ । याहि । वीतये । गृणानः । हव्यदातये । हव्य । दातये । नि । होता । सत्सि । बर्हिषि ॥६६०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 660
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक क्रमाङ्क १ पर परमात्मा, विद्वान् और राजा के पक्ष में व्याख्या हो चुकी है। यहाँ यज्ञाग्नि और जीवात्मा के पक्ष में व्याख्या की जा रही है।
पदार्थ
प्रथम—यज्ञाग्नि के पक्ष में। अग्निहोत्र के माध्यम से परमात्मा के तेज को अपने हृदय में प्रदीप्त करना चाहता हुआ उपासक यज्ञाग्नि का आह्वान कर रहा है। हे (अग्ने) यज्ञाग्नि ! तू (आयाहि) हमारे यज्ञ में आ। किसलिए? (वीतये) हवियों को खाने के लिए। (गृणानः) मन्त्रपाठ द्वारा हमसे स्तुति किया जाता हुआ अथवा हमारे रोग, पाप आदि को निगलता हुआ तू (हव्यदातये) दातव्य तेज आदि को देने के लिए, अथवा होमी हुई सुगन्धित, मधुर, पुष्टिप्रद तथा रोगनाशक गुणों से युक्त हवियों को सूक्ष्म करके वायुमण्डल में फैलाने के लिए आ। (होता) होमे हुए द्रव्यों का स्वीकार करनेवाला तथा आरोग्य, दीर्घायुष्य आदि को देनेवाला तू (बर्हिषि) यज्ञवेदि के आकाश में (नि सत्सि) बैठ। यहाँ अचेतन यज्ञाग्नि में चेतन के समान व्यवहार आलङ्कारिक है ॥ द्वितीय—आत्मोद्बोधन के पक्ष में। हे (अग्ने) मेरे अन्तरात्मन् ! तू (आयाहि) कर्मभूमि में पदार्पण कर। किसलिए? (वीतये) कर्म करने के लिए। (गृणानः) कर्मयोग का उपदेश करता हुआ तू (हव्यदातये) परोपकारार्थ आत्मोसर्ग करने के लिए आ। (होता) राष्ट्र के संगठन के लिए लोगों का आह्वान करनेवाला तू (बर्हिषि) उच्चपद पर (नि सत्सि) बैठ ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ
सबको चाहिए कि ऋतु के अनुकूल हवियों से अग्निहोत्र द्वारा वायुमण्डल को सुगन्धित तथा रोग के कीटाणुओं से रहित करके और यज्ञाग्नि के समान तीव्र तेज को तथा परमात्मा की ज्योति को अपने अन्तःकरण में धारण करके भौतिक एवम् आध्यात्मिक सम्पत्ति प्राप्त करें। साथ ही ‘मेरे दाहिने हाथ में कर्म है तो बाएँ हाथ में विजय रखी हुई है।’ अथ० ७।५२।८ इस वैदिक सन्देश को मुखर करके अपने अन्तरात्मा को उद्बोधन देकर जनहित के महान् कर्म करने चाहिएँ और राष्ट्र के हितार्थ अपना बलिदान देने से भी नहीं हिचकना चाहिए ॥१॥
पदार्थ
(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! तू (हव्यदातये गृणानः) हमें अपनी भेंट देने के लिए हमारे द्वारा स्तुत किया जाता हुआ प्रतीकाररूप में (वीतये आ याहि) अपनी प्राप्ति के लिए आ जा (होता बर्हिषि नि सत्सि) तू हृदयासन पर होता की भाँति नितरां प्राप्त हो—निरन्तर रमण कर।
भावार्थ
परमात्मा के प्रति स्वात्मसमर्पण करने से परमात्मा की स्तुति की जाती है तो वह अपने साक्षात् दर्शन के लिए आता है और हृदय में विराजमान हो जाता है जैसे होता यज्ञासन पर बैठ जाता है॥१॥
विशेष
ऋषिः—भरद्वाजो बार्हस्पत्यः (स्तुतिवाणी में कुशल अमृतभोग धारण करनेवाला उपासक)॥ देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
भरद्वाज बार्हस्पत्य
पदार्थ
'भरद्वाज' वह व्यक्ति है जो अपने अन्दर शक्ति को भरता है । शक्ति का पुञ्ज बनना इसके जीवन का एक पहलू है और दूसरा पहलू यह कि यह 'बार्हस्पत्य' बनता है - बृहस्पति की सन्तान । 'बृहतो' वाक्, तस्याः पतिः=वेदवाणी का पति-ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञानी । शारीरिक दृष्टिकोण से शक्ति के और आत्मिक दृष्टिकोण से ज्ञान के द्वारा अपने जीवन को अलंकृत करके यह आदर्श पुरुष बन जाता है ।
ऐसा आदर्श पुरुष बनने के लिए यह प्रभु का इस प्रकार आवाहन करता है । हे (अग्ने) = मुझे आगे ले-चलनेवाले प्रभो ! (आयाहि) = आइए । क्यों ? (वीतये) = मेरे हृदय के अज्ञानान्धकार को परे फेंक देने के लिए [वी असन=फेंकना] । सूर्य के समान आपके मेरे हृदय में उदय होते ही मेरा हृदय प्रकाश से जगमगा उठेगा, अन्धकार का वहाँ नामोनिशान भी न रहेगा । २. (गृणान:) = उपदेश देते हुए आप आइए। आपको हृदय में अनुभव कर मैं आपकी उपदेश देती हुई वाणी को सुन पाऊँगा, जिससे मुझे सदा पुण्य-पाप का ठीक विवेक होता रहे । ३. (हव्यदातये) = आप मेरे हृदय में विराजमान होंगे, तो मैं अपने जीवन को ही ‘हव्य' बना डालूँगा और आप मेरे बन्धनों को काट डालेंगे। ४.(होता) = आप सब उत्तम पदार्थों के देनेवाले हैं [हु-देना] । हे प्रभो ! मैं आपका आवाहन करता हूँ। आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरे हृदयाकाश में विराजिए, परन्तु आप (निसत्सि) = निश्चय से उसी हृदय में बैठते हैं, जिसमें कि (बर्हिषि) = [उद् बृह्=उखाड़ना] वासनाओं को उखाड़कर हृदय-मन्दिर का परिमार्जन किया गया है।
भावार्थ
हम प्रभु का आवाहन कर अपने अज्ञान को नष्ट करें। उसके [आवाहन] स्वागत के लिए हृदय को पवित्र बनाएँ ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = (१) व्याख्या देखो अविकल संख्या [१] पृo १ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भरद्वाज:। देवता - अग्निः। छन्दः - गायत्री। स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १ क्रमाङ्के परमात्मविद्वन्नृपतीनां पक्षे व्याख्यातपूर्वा। अत्र यज्ञाग्निपक्षे जीवात्मपक्षे च व्याख्यायते।
पदार्थः
प्रथमः—यज्ञाग्निपरः। अग्निहोत्रमाध्यमेन दिव्यं तेजः स्वान्तरात्मनि संदिदीपयिषुर्यज्ञाग्निमाह्वयति—हे (अग्ने) यज्ञवह्ने ! त्वम् (आयाहि) अस्मद्यज्ञमागच्छ। किमर्थम् ? (वीतये) हविषां भक्षणाय। (गृणानः२) मन्त्रपाठद्वाराऽस्माभिः स्तूयमानः रोगपापादीन् निगिरन् वा त्वम् [गॄ शब्दे क्र्यादिः, गॄ निगरणे तुदादिः।]। (हव्यदातये) हव्यानां देयानां तेजआदीनां दातिः दानं तस्मै, यद्वा हव्यानां हुतानां सुगन्धिमिष्टपुष्टिरोगनाशकगुणैर्युक्तानां हविषां दातिः सूक्ष्मीकृत्य वायुमण्डले प्रसारणं तस्मै, आयाहि। (होता) हुतद्रव्याणाम् आदाता आरोग्यदीर्घायुष्यादीनां प्रदाता च त्वम् (बर्हिषि) यज्ञवेद्या अन्तरिक्षे [बर्हिः इत्यन्तरिक्षनाम। निघं० १।३]। (नि सत्सि) निषीद। अत्राचेतने यज्ञाग्नौ चेतनवद् व्यवहार आलङ्कारिकः। द्वितीयः—जीवात्मोद्बोधनपरः। हे (अग्ने) मदीय अन्तरात्मन् ! त्वम् (आयाहि) कर्मभूमिम् आगच्छ। किमर्थम् ? (वीतये) कर्मकरणाय। [वी धातुरत्र गत्यर्थः।] (गृणानः) कर्मयोगम् उपदिशन् (हव्यदातये) परोपकाराय स्वात्मार्पणं कर्त्तुम्, आयाहि। (होता) राष्ट्रसंघटनाय जनानाम् आह्वाता सन् (बर्हिषि) उच्चपदे (नि सत्सि) निषीद ॥१॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥
भावार्थः
सर्वैर्ऋत्वनुकूलहव्यैरग्निहोत्रेण वायुमण्डलं सुगन्धि रोगकृमिरहितं च निष्पाद्य यज्ञाग्निवत् तीव्रं तेजः परमात्मज्योतिश्च स्वान्तःकरणे निधाय भौतिकाध्यात्मिकसम्पत् प्राप्तव्या। किञ्च, ‘कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः।’ अथ० ७।५२।८ इति वैदिकसन्देशं मुखरीकृत्य स्वात्मानं समुद्बोध्य जनहितकराणि महान्ति कर्माणि करणीयानि, राष्ट्रहिताय स्वबलिदानादपि च न भेतव्यम् ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।१६।१०, साम० १। २. गृणानः स्तूयमानः इति वि०। गृणानः स्तूयमानः, गृणातेः ‘भावकर्मणोः’ पा० १।३।१३। इत्यात्मनेदम्, यक्स्थाने श्ना प्रत्ययो व्यत्ययेन छान्दसः। ‘गृणाना जमदग्निना’ ऋ० ३।६२।१८ इति हि भवति—इति भ०। गृणानः अस्माभिः स्तूयमानः इति सा०। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं विद्वत्पक्षे व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Preceptor, casting aside the dirt of ignorance, for spreading knowledge, and preaching the performance of action in a spirit of renunciation, come thou unto me. Remain next to my heart, and ever act as my monitor !
Meaning
Come Agni, sung and celebrated, to join our feast of enlightenment, accept our homage to create the gifts of life and yajnic development, and take the honoured seat in the assembly. (Rg. 6-16-10)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अग्ने) જ્ઞાન-પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (हव्यदातये गृणानः) અમને પોતાની ભેટ આપવા માટે અમારા દ્વારા સ્તુત કરવામાં આવતાં તેના બદલામાં (वीतये आ याहि) તારી પ્રાપ્તિ માટે આવી જા (होता बर्हिषि न सत्सि) તું હૃદયાસન પર હોતાની સમાન નિરંતર પ્રાપ્ત થા-નિરંતર રમણ કર. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મા પ્રત્યે સ્વાત્મ સમર્પણ કરવાથી પરમાત્માની સ્તુતિ કરવામાં આવે છે, ત્યારે તે પોતાનાં સાક્ષાત્ દર્શન માટે આવે છે અને હૃદયમાં વિરાજમાન થાય છે, જેમ હોતા યજ્ઞાસન પર બેસે છે. (૧)
मराठी (2)
भावार्थ
सर्वांनी ऋतुनुसार हवीद्वारे अग्निहोत्र करून वायुमंडल सुगंधित करावे व रोगाचे कीटाणू नष्ट करावेत. यज्ञाग्नीप्रमाणे तीव्र तेजाला व परमात्म्याच्या ज्योतीला आपल्या अंत:करणात धारण करून भौतिक व आध्यात्मिक संपत्ती प्राप्त करावी. त्याबरोबरच ‘माझ्या उजव्या हातात कर्म आहे तर डाव्या हातात विजय आहे’ अथ. ७/५२/८ या वैदिक संदेशाला गुंजित करून आपल्या अंतरात्म्याला उद्बोधन करून जनहिताचे महान कार्य करावे व राष्ट्रहितासाठी आपले बलिदान देण्यास मागे-पुढे पाहू नये. ॥१॥
विषय
पुढील ६६० क्रमांकाचा मंत्र सामवेदाच्या पूर्वाचिक भागाचा प्रथम मंत्र आहे. तिथे या मंत्राचा परमात्मपर, विद्वत्पर आणि राजापर अर्थ केला आहे. या मंत्राचे आणखी दोन अर्थ यज्ञाग्निचर व जीवात्मपर अर्थ आहेत. ते पुढे दिले आहेत.
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ-यज्ञाग्निपर) : अग्निहोत्राच्या माध्यमातून परमात्म तेज स्वत:च्या हृदयात प्रदीप्त करण्याची इच्छा करणारा उपासक यज्ञाग्नीला संबोधून म्हणत आहे. (अग्ने) हे यज्ञाग्नी, तू (आयाहि) आमच्या यज्ञात ये. कशासाठी? (वीतये) आम्ही तुला देत असलेलया हव्य पदार्थ खाण्यासाठी ये (गृणान:) मंत्रपाठाने आम्ही तुझी स्तुती करत आहोत. तू आमचे रोग, पाप आदिंना गिळण्यासाठी ये. आम्हाला (हव्यदातये) दातव्य तेज देण्यासाठी ये अथवा सुगंधित, मधुर, पुष्टिप्रद व रोगनाशक अशा हव्य पदार्थांना सूक्ष्म करून तो वायू वायुमंडळात फैलावण्यासाठी तू ये. (होता) तू होमात टाकलेले द्रव्यांचा स्वीकार करणारा आहेस अथवा आरोग्य वा दीर्घायुष्य देणारा आहेत. तू (वर्हिषि) यज्ञवेदीच्या आकाशात (निसत्सि) येऊन स्थिर हो. या मंत्रात अचेतन वा जड पदार्थाला अग्नीला चेतनाप्रमाणे मानून संबोधित केले आहे. हा प्रयोग अलंकारिक आहे. (येथे जडपूजा मानू नये) ।। (द्वितीय अर्थ - आत्म उद्बोधनपर आहे) (अग्ने) हे माझ्या अंतरात्मन् (रे माझ्या मना) तू (आयाहि) कर्मक्षेत्रात पदार्पण कर (सत्कर्म करीत जा) (वीतये) सत्कृत्य करण्यासाठी (गुणान:) स्वत:ला व इतरांना कर्म करण्याची प्रेरणा करीत करीत तू (हव्यदातये) परोपकारासाठी, तसेच त्याग व आत्म प्रबोधनासाठी पुढे ये. (प्रयत्न करीत राहा) (होम तू राष्ट्रास संगठन व ऐक्य निर्माण करण्यासाठी जनतेला आवाहन करणारा आहेस. म्हणून तू (बर्हिषि) समाजाच्या उच्च पदावर (निसत्सि) आसीन हो. (समाजाचे नेतृत्व कर ।।१।।
भावार्थ
सर्वांचे हे कर्तव्य आहे की त्यांनी ऋतूप्रमाणे अनुकूल अशा हव्य पदार्थांद्वारे होम करून वायुमंडळ सुगंधित व रोगरहित करावे व अशाप्रमारे आपली भौतिक उन्नती करावी. तसेच सर्वांनी आपल्या हृदयात व ज्ञाग्नीच्या तेजाप्रमाणे परमात्म-ज्योती प्रज्वलित ठेवावी व अशाप्रकारे आध्यात्मिक संपत्ती मिळवावी. तसेच अथर्ववेदाच्या अ. ७/५२/८ या मंत्रात सांगितलेल्या उपदेशाप्रमाणे मानाने की माझ्या उजव्या हातात कर्म असून, डाव्या हातात विजय ठेवलेला आहे. अशाप्रकारे आपल्या अंतरात्म्यास उद्बोधन देऊन महान कर्मे करीत असावे. एवढेच नव्हे तर राष्ट्रहितासाठी आपला बलिदान देण्यातही संकोच वा भय मानू नये ।।१।।
विशेष
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे.
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