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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 666
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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आ꣡ या꣢हि सुषु꣣मा꣢꣫ हि त꣣ इ꣢न्द्र꣣ सो꣢मं꣣ पि꣡बा꣢ इ꣣म꣢म् । एदं꣢꣫ ब꣣र्हिः꣡ स꣢दो꣣ म꣡म꣢ ॥६६६॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । याहि꣣ । सुषुम꣢ । हि । ते꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । सो꣡मम्꣢꣯ । पिब । इ꣡म꣢꣯म् । आ । इ꣣द꣢म् । ब꣣र्हिः꣢ । स꣣दः । म꣡म꣢꣯ ॥६६६॥


स्वर रहित मन्त्र

आ याहि सुषुमा हि त इन्द्र सोमं पिबा इमम् । एदं बर्हिः सदो मम ॥६६६॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । याहि । सुषुम । हि । ते । इन्द्र । सोमम् । पिब । इमम् । आ । इदम् । बर्हिः । सदः । मम ॥६६६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 666
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
हे (इन्द्र) अन्तरात्मन् ! तू (आयाहि) आ, (ते) तेरे लिए, हमने (सोमम्) ज्ञानरस को (सुषुम) आँख, कान आदि ज्ञान के साधनों से अभिषुत किया है। तू (इमम्) इस ज्ञानरस को (पिब) पी, अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त इस ज्ञान का मनन कर। तू (इदम्) इस (मम) मेरे (बर्हिः) हृदयासन पर (आ सदः) बैठा हुआ है ॥१॥

भावार्थ - मन के माध्यम से ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान का मनन और निदिध्यासन द्वारा पूर्ण साक्षात्कार करना चाहिए ॥१॥

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