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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 695
ऋषिः - अग्निश्चाक्षुषः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
6
अ꣣यं꣡ भरा꣢꣯य सान꣣सि꣡रिन्द्रा꣢꣯य पवते सु꣣तः꣢ । सो꣢मो꣣ जै꣡त्र꣢स्य चेतति꣣ य꣡था꣢ वि꣣दे꣢ ॥६९५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣य꣢म् । भ꣡रा꣢꣯य । सा꣣नसिः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । प꣣वते । सुतः꣢ । सो꣡मः꣢꣯ । जै꣡त्र꣢स्य । चे॓तति । य꣡था꣢ । वि꣢दे꣢ ॥६९५॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं भराय सानसिरिन्द्राय पवते सुतः । सोमो जैत्रस्य चेतति यथा विदे ॥६९५॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम् । भराय । सानसिः । इन्द्राय । पवते । सुतः । सोमः । जैत्रस्य । चे॓तति । यथा । विदे ॥६९५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 695
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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विषय - अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।
पदार्थ -
(भराय) देवासुरसंग्राम में जीतने के लिए (सानसिः) संभजनीय, (सुतः) आचार्य द्वारा शिष्यों में प्रेरित (अयम्) यह ज्ञान-कर्म-उपासना का रस (इन्द्राय) आत्मा के लिए (पवते) प्रवाहित हो रहा है। (जैत्रस्य) विजयशील उस आत्मा का (सोमः) वह ज्ञान-कर्म-उपासना का रस (चेतति) सदैव जागता रहे, (यथा) जिससे, वह (विदे) सदा कर्तव्य-अकर्तव्य को पहचानता रहे ॥२॥
भावार्थ - ज्ञान, तदनुकूल कर्म और परमेश्वर की उपासना सदैव मनुष्य को संसार के समरांगण में विजय दिलाते हैं ॥२॥
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