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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 713
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
5
पा꣢न्त꣣मा꣢ वो꣣ अ꣡न्ध꣢स꣣ इ꣡न्द्र꣢म꣣भि꣡ प्र गा꣢꣯यत । वि꣣श्वासा꣡ह꣢ꣳ श꣣त꣡क्र꣢तुं꣣ म꣡ꣳहि꣢ष्ठं चर्षणी꣣ना꣢म् ॥७१३॥
स्वर सहित पद पाठपा꣡न्त꣢꣯म् । आ । वः꣣ । अ꣡न्ध꣢꣯सः । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣣भि꣢ । प्र । गा꣣यत । विश्वासा꣡ह꣢म् । वि꣣श्वा । सा꣡ह꣢꣯म् । श꣣त꣡क्र꣢तुम् । श꣣त꣢ । क्र꣣तुम् । म꣡ꣳहि꣢꣯ष्ठम् । च꣣र्षणीना꣢म् ॥७१३॥
स्वर रहित मन्त्र
पान्तमा वो अन्धस इन्द्रमभि प्र गायत । विश्वासाहꣳ शतक्रतुं मꣳहिष्ठं चर्षणीनाम् ॥७१३॥
स्वर रहित पद पाठ
पान्तम् । आ । वः । अन्धसः । इन्द्रम् । अभि । प्र । गायत । विश्वासाहम् । विश्वा । साहम् । शतक्रतुम् । शत । क्रतुम् । मꣳहिष्ठम् । चर्षणीनाम् ॥७१३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 713
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में १५५ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के पक्ष में हो चुकी है। यहाँ गुरु-शिष्य का वर्णन करते हैं।
पदार्थ -
हे शिष्यो ! (वः) तुम (अन्धसः) विद्या-रस की (पान्तम्) रक्षा करनेवाले, (विश्वासाहम्) काम, क्रोध, अज्ञान, आलस्य आदि सब शत्रुओं को पराजित करनेवाले, (शतक्रतुम्) बहुत बुद्धिमान् तथा बहुत कर्मण्य, (चर्षणीनाम्) पुरुषार्थी छात्रों को (मंहिष्ठम्) अतिशय विद्या और सदाचार का दान करनेवाले (इन्द्रम् अभि) अगाध ज्ञान आदि ऐश्वर्य से शोभायमान आचार्य को लक्ष्य करके (प्र गायत) भली-भाँति स्तुति करो ॥१॥
भावार्थ - जो शिष्य विद्या के समुद्र, शिक्षण-कला में कुशल, सदाचारी, ब्रह्मिष्ठ गुरु की श्रद्धा के साथ सेवा करते हैं, वे विद्वान्, सदाचारी, ब्रह्मज्ञानी होकर अभ्युदय प्राप्त करते हैं ॥१॥
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