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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 773
ऋषिः - अग्निश्चाक्षुषः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
6
प꣡व꣢ते हर्य꣣तो हरि꣢꣯रति ह्वराꣳसि रꣳह्या । अभ्यर्ष स्तोतृभ्यो वीरवद्यशः ॥७७३॥
स्वर सहित पद पाठप꣡व꣢꣯ते । ह꣣र्य꣢तः । ह꣡रिः꣢꣯ । अ꣡त्ति꣢꣯ । ह्व꣡रा꣢꣯ꣳसि । र꣡ꣳह्या꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । अ꣣र्ष । स्तोतृ꣡भ्यः꣢ । वी꣣र꣡व꣢त् । य꣡शः꣢꣯ ॥७७३॥
स्वर रहित मन्त्र
पवते हर्यतो हरिरति ह्वराꣳसि रꣳह्या । अभ्यर्ष स्तोतृभ्यो वीरवद्यशः ॥७७३॥
स्वर रहित पद पाठ
पवते । हर्यतः । हरिः । अत्ति । ह्वराꣳसि । रꣳह्या । अभि । अर्ष । स्तोतृभ्यः । वीरवत् । यशः ॥७७३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 773
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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विषय - द्वितीय ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ५७६ पर मनुष्य के उत्साह-कर्म के विषय में की गयी थी। यहाँ परमात्मा के विषय में वर्णन है।
पदार्थ -
(हर्यतः) चाहने योग्य, (हरिः) अज्ञान, पाप आदि का हर्ता जगदीश्वर (रंह्या) वेग के साथ (ह्वरांसि) अति कुटिलताओं को पार कराकर (पवते) उपासकों को पवित्र करता है। हे जगदीश्वर ! आप (स्तोतृभ्यः)स्तुति करनेवाले उपासकों के लिए (वीरवत्) वीर भावों से युक्त (यशः) कीर्ति (अभ्यर्ष) प्राप्त कराओ ॥२॥
भावार्थ - परमात्मा के उपासक जन दुर्गुण, दुर्व्यसन, दुःख, पाप, कुटिलता आदियों से छूटकर वीर्य तथा उत्साह से युक्त होकर जीवन बिताते हैं ॥२॥
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