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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 810
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
6
स꣡ त्वं न꣢꣯श्चित्र वज्रहस्त धृष्णु꣣या꣢ म꣣ह꣡ स्त꣢वा꣣नो꣡ अ꣢द्रिवः । गा꣡मश्व꣢꣯ꣳ र꣣꣬थ्य꣢꣯मिन्द्र꣣ सं꣡ कि꣢र स꣣त्रा꣢꣫ वाजं꣣ न꣢ जि꣣ग्यु꣡षे꣢ ॥८१०॥
स्वर सहित पद पाठसः꣢ । त्वम् । नः꣣ । चित्र । वज्रहस्त । वज्र । हस्त । धृष्णुया꣢ । म꣣हः꣢ । स्त꣣वानः꣢ । अ꣣द्रिवः । अ । द्रिवः । गा꣢म् । अ꣡श्व꣢꣯म् । र꣣थ्य꣢म् । इ꣣न्द्र । स꣢म् । कि꣣र । सत्रा꣢ । वा꣡ज꣢꣯म् । न । जि꣣ग्यु꣡षे꣢ ॥८१०॥
स्वर रहित मन्त्र
स त्वं नश्चित्र वज्रहस्त धृष्णुया मह स्तवानो अद्रिवः । गामश्वꣳ रथ्यमिन्द्र सं किर सत्रा वाजं न जिग्युषे ॥८१०॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । त्वम् । नः । चित्र । वज्रहस्त । वज्र । हस्त । धृष्णुया । महः । स्तवानः । अद्रिवः । अ । द्रिवः । गाम् । अश्वम् । रथ्यम् । इन्द्र । सम् । किर । सत्रा । वाजम् । न । जिग्युषे ॥८१०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 810
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा और जीवात्मा को सम्बोधन है।
पदार्थ -
हे (चित्र) अद्भुत गुण, कर्म, स्वभाववाले, (वज्रहस्त) दण्डसामर्थ्ययुक्त अथवा शस्त्रास्त्र हाथ में धारण करनेवाले, (अद्रिवः) शत्रुओं से विदारण न किये जा सकनेवाले (इन्द्र) परमैश्वर्यवान् परमात्मन् वा जीवात्मन् ! (स्तवानः) स्तुति या गुण-वर्णन किया जाता हुआ, (धृष्णुया) धर्षक बल से (महः) महान् (सः) वह प्रसिद्ध (त्वम्) तू (नः) हमें (रथ्यम्) शरीर-रथ के वाहक (गाम्) प्राण-बल को तथा (अश्वम्) इन्द्रिय-बल को (संकिर) प्रदान कर, (न) जैसे (जिग्युषे) संग्राम को जीत लेनेवाले योद्धाजन को (सत्रा) सदा (वाजम्) अन्न, धन आदि का पुरस्कार राजा आदि प्रदान करते हैं ॥२॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ - आध्यात्मिक विजय के लिए और बाह्य विजय के लिए भी आत्मोद्बोधन के साथ परमात्मा की भी सहायता अपेक्षित होती है ॥२॥
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