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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 815
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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य꣢स्ते꣣ म꣢दो꣣ व꣡रे꣢ण्य꣣स्ते꣡ना꣢ पव꣣स्वा꣡न्ध꣢सा । दे꣣वावी꣡र꣢घशꣳस꣣हा꣢ ॥८१५॥

स्वर सहित पद पाठ

यः꣢ । ते꣣ । म꣡दः꣢꣯ । व꣡रे꣢꣯ण्यः । ते꣡न꣢꣯ । प꣣वस्व । अ꣡न्ध꣢꣯सा । दे꣢वावीः꣣ । दे꣢व । अवीः꣢ । अ꣣घशꣳसहा꣢ । अ꣣घशꣳस । हा꣢ ॥८१५॥


स्वर रहित मन्त्र

यस्ते मदो वरेण्यस्तेना पवस्वान्धसा । देवावीरघशꣳसहा ॥८१५॥


स्वर रहित पद पाठ

यः । ते । मदः । वरेण्यः । तेन । पवस्व । अन्धसा । देवावीः । देव । अवीः । अघशꣳसहा । अघशꣳस । हा ॥८१५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 815
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
हे पवमान सोम अर्थात् पवित्रकर्त्ता आनन्दरसागार परमात्मन् वा ज्ञानरसागार आचार्य ! (यः ते) जो आपका (वरेण्यः) वरणीय, (मदः) उत्साहप्रद आनन्द-रस वा ज्ञानरस है, (तेन अन्धसा) उस आनन्दरस वा ज्ञानरस से (पवस्व) हम उपासकों वा शिष्यों को पवित्र करो और, आप (देवावीः) दिव्यगुणप्राप्ति करानेवाले, तथा (अघशंसहा) पापप्रशंसक दुर्विचारों का विनाश करनेवाले होवो ॥१॥

भावार्थ - जैसे जगदीश्वर उपासकों को आनन्दरस प्रदान करता, दिव्य गुण प्राप्त कराता और उनके दुर्विचारों को नष्ट करता है, वैसे ही शिष्यों को विद्या देना, उनका आनन्द बढ़ाना, उनके दोषों को नष्ट करना और उनमें सद्गुणों का आरोपण करना गुरुओं का कर्तव्य है ॥१॥

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