Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 814
ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
6

म꣡त्स्वा꣢ सुशिप्रिन्हरिव꣣स्त꣡मी꣢महे꣣ त्व꣡या꣢ भूषन्ति वे꣣ध꣡सः꣢ । त꣢व꣣ श्र꣡वा꣢ꣳस्युप꣣मा꣡न्यु꣢क्थ्य सु꣣ते꣡ष्वि꣢न्द्र गिर्वणः ॥८१४॥

स्वर सहित पद पाठ

म꣡त्स्व꣢꣯ । सु꣣शिप्रिन् । सु । शिप्रिन् । हरिवः । त꣢म् । ई꣣महे । त्व꣡या꣢꣯ । भू꣣षन्ति । वे꣡धसः꣢ । त꣡व꣢꣯ । श्र꣡वा꣢꣯ꣳसि । उ꣣प꣡मानि꣡ । उ꣣प । मा꣡नि꣢꣯ । उ꣡क्थ्य । सुते꣡षु꣢ । इ꣢न्द्र । गिर्वणः । गिः । वनः ॥८१४॥


स्वर रहित मन्त्र

मत्स्वा सुशिप्रिन्हरिवस्तमीमहे त्वया भूषन्ति वेधसः । तव श्रवाꣳस्युपमान्युक्थ्य सुतेष्विन्द्र गिर्वणः ॥८१४॥


स्वर रहित पद पाठ

मत्स्व । सुशिप्रिन् । सु । शिप्रिन् । हरिवः । तम् । ईमहे । त्वया । भूषन्ति । वेधसः । तव । श्रवाꣳसि । उपमानि । उप । मानि । उक्थ्य । सुतेषु । इन्द्र । गिर्वणः । गिः । वनः ॥८१४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 814
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
Acknowledgment

पदार्थ -
हे (सुशिप्रिन्) सर्वान्तर्यामी, (हरिवः) आकर्षणशील सूर्य, चन्द्र आदि लोकों के स्वामी परमात्मन् ! आप (मत्स्व) हमें आनन्दित कीजिए। (तम्) उन आनन्दप्रद आपसे हम (ईमहे) याचना करते हैं। (वेधसः) मेधावी उपासक (त्वया) आप से (भूषन्ति) स्वयं को अलङ्कृत करते हैं। हे (उक्थ्य) प्रशंसनीय, (गिर्वणः) वाणियों से संभजनीय (इन्द्र) जगदीश्वर ! (तव) आपके (श्रवांसि) यश (सुतेषु) आपके पुत्र मनुष्यों में (उपमानि) उपमान योग्य होते हैं, अर्थात् मनुष्यों के यश परमात्मा के यशों के समान उज्ज्वल हों, इस प्रकार उपमान बनते हैं ॥२॥

भावार्थ - हृदय में परमात्मा को धारण करने से ही लोग अलङ्कृत होते हैं, शरीर के अङ्गों में कटक, कुण्डल, स्वर्णहार आदि धारण करने से नहीं ॥२॥ इस खण्ड में विद्वानों का और आचार्य का ब्रह्मविद्या में योगदान कहकर जीवात्मा और परमात्मा के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ तृतीय अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥

इस भाष्य को एडिट करें
Top