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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 822
ऋषिः - सिकता निवावरी
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
6
म꣣नीषि꣡भिः꣢ पवते पू꣣र्व्यः꣢ क꣣वि꣡र्नृभि꣢꣯र्य꣣तः꣢꣫ परि꣣ को꣡शा꣢ꣳ असिष्यदत् । त्रि꣣त꣢स्य꣣ ना꣡म꣢ ज꣣न꣢य꣣न्म꣢धु꣣ क्ष꣢र꣣न्नि꣡न्द्र꣢स्य वा꣣यु꣢ꣳ स꣣ख्या꣡य꣢ व꣣र्ध꣡य꣢न् ॥८२२॥
स्वर सहित पद पाठम꣢नी꣡षिभिः꣣ । प꣣वते । पूर्व्यः꣡ । क꣣विः꣢ । नृ꣡भिः꣢꣯ । य꣣तः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । को꣡शा꣢꣯न् । अ꣣सिष्यदत् । त्रित꣡स्य꣢ । ना꣡म꣢꣯ । ज꣣न꣡य꣢न् । म꣡धु꣢꣯ । क्ष꣡र꣢꣯न् । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । वा꣡यु꣢म् । स꣣ख्या꣡य꣢ । स꣣ । ख्या꣡य꣢꣯ । व꣣र्द्ध꣡य꣢न् ॥८२२॥
स्वर रहित मन्त्र
मनीषिभिः पवते पूर्व्यः कविर्नृभिर्यतः परि कोशाꣳ असिष्यदत् । त्रितस्य नाम जनयन्मधु क्षरन्निन्द्रस्य वायुꣳ सख्याय वर्धयन् ॥८२२॥
स्वर रहित पद पाठ
मनीषिभिः । पवते । पूर्व्यः । कविः । नृभिः । यतः । परि । कोशान् । असिष्यदत् । त्रितस्य । नाम । जनयन् । मधु । क्षरन् । इन्द्रस्य । वायुम् । सख्याय । स । ख्याय । वर्द्धयन् ॥८२२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 822
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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विषय - अगले मन्त्र में परमात्मारूप सोम का वर्णन है।
पदार्थ -
(पूर्व्यः) श्रेष्ठ, (कविः) वेदकाव्य का कवि, क्रान्तद्रष्टा, मेधावी वह सोम परमेश्वर (पवते) हृदयों को पवित्र करता है। (मनीषिभिः) बुद्धिमान् (नृभिः) उपासक जनों से (यतः) ग्रहण किया हुआ, ध्यान किया गया वह (कोशान्) शरीरस्थ पञ्च कोशों में (परि असिष्यदत्) रस को प्रवाहित करता है। वह (त्रितस्य) ज्ञान, कर्म, उपासना तीनों से युक्त उपासक के (नाम) यश को (जनयन्) उत्पन्न करता हुआ, (मधु) आनन्द को (क्षरन्) झराता हुआ (इन्द्रस्य) जीवात्मा के (सख्याय) सहयोग के लिए, उसके (वायुम्) प्राण को (वर्धयन्) बढ़ाता रहता है ॥२॥
भावार्थ - परमेश्वर उपासक को अपना सखा बनाकर उसके लिए दिव्य आनन्द-रूप मधु टपकाता रहता है ॥२॥
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