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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 850
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
देवता - मरुत इन्द्रश्च
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
5
इ꣡न्द्रे꣢ण꣣ स꣡ꣳ हि दृक्ष꣢꣯से संजग्मा꣣नो꣡ अबि꣢꣯भ्युषा । म꣣न्दू꣡ स꣢मा꣣न꣡व꣢र्च्चसा ॥८५०॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रे꣢꣯ण । सम् । हि । दृ꣡क्ष꣢꣯से । सं꣣जग्मानः꣢ । स꣣म् । जग्मानः꣢ । अ꣡बि꣢꣯भ्युषा । अ । बि꣣भ्युषा । मन्दू꣡ इति꣢ । स꣣मान꣡व꣢र्चसा । स꣣मान꣢ । व꣣र्चसा ॥८५०॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेण सꣳ हि दृक्षसे संजग्मानो अबिभ्युषा । मन्दू समानवर्च्चसा ॥८५०॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रेण । सम् । हि । दृक्षसे । संजग्मानः । सम् । जग्मानः । अबिभ्युषा । अ । बिभ्युषा । मन्दू इति । समानवर्चसा । समान । वर्चसा ॥८५०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 850
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम मन्त्र में जीवात्मा और प्राण का विषय है।
पदार्थ -
हे मरुतों के गण अर्थात् प्राण-गण ! तू (अबिभ्युषा) निर्भय (इन्द्रेण) जीवात्मा के साथ (संजग्मानः) सङ्गत होता हुआ (संदृक्षसे) दिखायी देता है। तुम दोनों अर्थात् प्राण-गण और जीवात्मा (मन्दू) आनन्द देनेवाले, तथा (समानवर्चसा) तुल्य तेजवाले हो ॥१॥
भावार्थ - शरीर में जीवात्मा और प्राण दोनों का समान महत्त्व है। प्राण के बिना जीवात्मा और जीवात्मा के बिना प्राण कुछ नहीं कर सकता ॥१॥
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