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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 864
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
5
व꣣यं꣡ घ꣢ त्वा सु꣣ता꣡व꣢न्त꣣ आ꣢पो꣣ न꣢ वृ꣣क्त꣡ब꣢र्हिषः । प꣣वि꣡त्र꣢स्य प्र꣣स्र꣡व꣢णेषु वृत्रह꣣न्प꣡रि꣢ स्तो꣣ता꣡र꣢ आसते ॥८६४॥
स्वर सहित पद पाठव꣣य꣢म् । घ꣡ । त्वा । सुता꣡व꣢न्तः । आ꣡पः꣢꣯ । न । वृ꣣क्त꣡ब꣢र्हिषः । वृ꣣क्त꣢ । ब꣣र्हिषः । पवि꣡त्र꣢स्य । प्र꣣स्र꣡व꣢णेषु । प्र꣣ । स्र꣡व꣢꣯णेषु । वृ꣣त्रहन् । वृत्र । हन् । प꣡रि꣢꣯ । स्तो꣣ता꣡रः꣢ । आ꣣सते ॥८६४॥
स्वर रहित मन्त्र
वयं घ त्वा सुतावन्त आपो न वृक्तबर्हिषः । पवित्रस्य प्रस्रवणेषु वृत्रहन्परि स्तोतार आसते ॥८६४॥
स्वर रहित पद पाठ
वयम् । घ । त्वा । सुतावन्तः । आपः । न । वृक्तबर्हिषः । वृक्त । बर्हिषः । पवित्रस्य । प्रस्रवणेषु । प्र । स्रवणेषु । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । परि । स्तोतारः । आसते ॥८६४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 864
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में २६१ क्रमाङ्क पर परमेश्वरोपासना विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ आचार्य का विषय वर्णित है।
पदार्थ -
पुत्रों को गुरुकुल में प्रविष्ट कराने के लिए उनके साथ आए हुए पितृजन आचार्य को कह रहे हैं—हे आचार्यप्रवर ! (वृक्तबर्हिषः) जिन्होंने अन्तरिक्ष को छोड़ दिया है, ऐसे (आपः न) बादल के जलों के समान (वृक्तबर्हिषः) घरों को छोड़कर आये हुए, (सुतवन्तः) पुत्रों सहित (वयम्) हम लोग (त्वा घ) आपको ही प्राप्त हुए हैं। हे (वृत्रहन्) दोषों को मारनेवाले श्रेष्ठ आचार्य ! (स्तोतारः) समित्पाणि होकर आपके पास आये हुए, आपके गुणों का गान करनेवाले शिष्यजन (पवित्रस्य) विशुद्ध ज्ञान और विशुद्ध आचरण के (प्रस्रवणेषु) प्रवाहों में (परि आसते) तैरा करते हैं। अतः हमारे पुत्रों का भी उपनयन संस्कार करके इन्हें विद्वान् बनाइये, यह भाव है ॥१॥ यहाँ श्लिष्टोपमालङ्कार है। कारणरूप उत्तरार्ध वाक्य से कार्यरूप पूर्वार्ध वाक्य का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास भी है ॥१॥
भावार्थ - सब माता-पिताओं को चाहिए कि अपने बालकों वा बालिकाओं को आचार्य वा आचार्या के पास सौंपकर उन्हें विद्वान् और विदुषियाँ बनायें ॥१॥
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