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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 873
ऋषिः - ययातिर्नाहुषः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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इ꣢न्दु꣣रि꣡न्द्रा꣢य पवत꣣ इ꣡ति꣢ दे꣣वा꣡सो꣢ अब्रुवन् । वा꣣च꣡स्पति꣢꣯र्मखस्यते꣣ वि꣢श्व꣣स्ये꣡शा꣢न꣣ ओ꣡ज꣢सः ॥८७३॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्दुः꣢꣯ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । प꣣वते । इ꣡ति꣢꣯ । दे꣣वा꣡सः꣢ । अ꣣ब्रुवन् । वाचः꣢ । प꣡तिः꣢꣯ । म꣣खस्यते । वि꣡श्व꣢꣯स्य । ई꣡शा꣢꣯नः । ओ꣡ज꣢꣯सः ॥८७३॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्दुरिन्द्राय पवत इति देवासो अब्रुवन् । वाचस्पतिर्मखस्यते विश्वस्येशान ओजसः ॥८७३॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्दुः । इन्द्राय । पवते । इति । देवासः । अब्रुवन् । वाचः । पतिः । मखस्यते । विश्वस्य । ईशानः । ओजसः ॥८७३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 873
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(इन्दुः) ज्ञानरस वा ब्रह्मानन्द-रस (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए (पवते) क्षरित होता है (इति) यह (देवाः) विद्वान लोग (अब्रुवन्) कहते हैं। (वाचः पतिः) वाणी का स्वामी परमेश्वर वा आचार्य (मखस्यते) आनन्दप्रदान-यज्ञ वा अध्यापन-यज्ञ करता है, जो (विश्वस्य ओजसः) सब ब्रह्मबल वा ज्ञानबल का (ईशानः) अधीश्वर है। अतः उसके पास से सबको ब्रह्मबल और ज्ञानबल प्राप्त करना योग्य है, यह आशय है ॥२॥

भावार्थ - आत्मा ही ज्ञान को ग्रहण करनेवाला और सुख को भोगनेवाला है, यह विद्वानों का अनुभव है। परमेश्वर के पास से ब्रह्मानन्द को और आचार्यों के पास से ज्ञान को जो ग्रहण करते हैं, उनका जीवन सफल होता है ॥२॥

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