Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 90
ऋषिः - वामदेवः कश्यपो वा मारीचो मनुर्वा वैवस्वत अभौ वा
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
17
जा꣣तः꣡ परे꣢꣯ण꣣ ध꣡र्म꣢णा꣣ य꣢त्स꣣वृ꣡द्भिः꣢ स꣣हा꣡भु꣢वः । पि꣣ता꣢꣫ यत्क꣣श्य꣡प꣢स्या꣣ग्निः꣢ श्र꣣द्धा꣢ मा꣣ता꣡ मनुः꣢꣯ क꣣विः꣢ ॥९०
स्वर सहित पद पाठजा꣣तः꣢ । प꣡रे꣢꣯ण । ध꣡र्म꣢꣯णा । यत् । स꣣वृ꣡द्भिः꣢ । स꣣ । वृ꣡द्भिः꣢꣯ । स꣣ह꣢ । अ꣡भु꣢꣯वः । पि꣣ता꣢ । यत् । क꣣श्य꣡प꣢स्य । अ꣣ग्निः꣢ । श्र꣣द्धा꣢ । श्र꣣त् । धा꣢ । मा꣣ता꣢ । म꣡नुः꣢꣯ । क꣣विः꣢ ॥९०॥
स्वर रहित मन्त्र
जातः परेण धर्मणा यत्सवृद्भिः सहाभुवः । पिता यत्कश्यपस्याग्निः श्रद्धा माता मनुः कविः ॥९०
स्वर रहित पद पाठ
जातः । परेण । धर्मणा । यत् । सवृद्भिः । स । वृद्भिः । सह । अभुवः । पिता । यत् । कश्यपस्य । अग्निः । श्रद्धा । श्रत् । धा । माता । मनुः । कविः ॥९०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 90
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 9;
Acknowledgment
विषय - अगले मन्त्र में मनुष्य-जन्म ग्रहण किये हुए जीवात्मा को सम्बोधन करके कहा गया है।
पदार्थ -
हे जीवात्मन् ! तू (परेण) उत्कृष्ट (धर्मणा) धर्मनामक संस्कार के कारण (जातः) मानवयोनि में जन्मा है, (यत्) क्योंकि तू (सवृद्भिः सह) साथ रहनेवाले सूक्ष्मशरीरस्थ पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच सूक्ष्मभूत और मन तथा बुद्धि, इन सत्रह तत्त्वों के साथ (अभुवः) विद्यमान था। (यत्) क्योंकि (कश्यपस्य) तुझ द्रष्टा का (पिता) पिता अर्थात् मनुष्यशरीरदाता (अग्निः) अग्रणी तेजोमय परमात्मा है, अतः (श्रद्धा) श्रद्धा (माता) तेरी माता के तुल्य हो और तू (स्वयम् मनुः) मननशील, तथा (कविः) मेधावी बन ॥१०॥
भावार्थ - जब जीवात्मा मृत्यु के समय शरीर से निकलता है, तब सूक्ष्म शरीर उसके साथ विद्यमान होता है, और सूक्ष्मशरीरस्थ चित्त में धर्माधर्म नामक शुभाशुभ कर्म-संस्कार आत्मा के साथ जाते हैं। धर्म से वह मनुष्य-जन्म और अधर्म से पशु-पक्षी आदि का जन्म पाता है। जीवात्मा ज्ञानग्रहण के सामर्थ्यवाला होने से कश्यप अर्थात् द्रष्टा है। इसलिए उसे सकल ज्ञान-विज्ञान का संचय करना चाहिए। क्योंकि परमेश्वर उसका शरीर में जन्म-दाता होता है, अतः पिता की महत्ता का विचार करके उसे जीवन में श्रद्धा को माता के समान स्वीकार करना चाहिए और स्वयं मननशील तथा मेधावी बनना चाहिए ॥१०॥ जो लोग यह कहते हैं कि कश्यप ऋषि का नाम है, श्रद्धा देवी का नाम है और मनु से वैवस्वत मनु का ग्रहण है, उनका मत वेदों में लौकिक इतिहास न होने से संगत नहीं है ॥ इस दशति में परमात्मा से यश, तेज, धन, बल आदि की प्रार्थना, परमात्मा के प्रभाव का वर्णन, अतिथि परमात्मा के प्रति हव्य-समर्पण और उसके पूजन की प्रेरणा होने से तथा परमात्मा को पिता और श्रद्धा को माता के रूप में वर्णित करने से इसके विषय की पूर्वदशति के विषय के साथ संगति है, ऐसा जानो। प्रथम प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की चतुर्थ दशति समाप्त। प्रथम अध्याय में नवम खण्ड समाप्त ॥
इस भाष्य को एडिट करें