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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 915
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
अ꣢꣫त्राह꣣ गो꣡र꣢मन्वत꣣ ना꣢म꣣ त्व꣡ष्टु꣢रपी꣣꣬च्य꣢꣯म् । इ꣣त्था꣢ च꣣न्द्र꣡म꣢सो गृ꣣हे꣢ ॥९१५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡त्र꣢꣯ । अ꣡ह꣢꣯ । गोः । अ꣣मन्वत । ना꣡म꣢꣯ । त्व꣡ष्टुः꣢꣯ । अ꣡पीच्य꣢म् । इ꣣त्था꣢ । च꣣न्द्र꣡म꣢सः । च꣣न्द्र꣢ । म꣣सः । गृहे꣣ ॥९१५॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टुरपीच्यम् । इत्था चन्द्रमसो गृहे ॥९१५॥
स्वर रहित पद पाठ
अत्र । अह । गोः । अमन्वत । नाम । त्वष्टुः । अपीच्यम् । इत्था । चन्द्रमसः । चन्द्र । मसः । गृहे ॥९१५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 915
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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विषय - तृतीय ऋचा पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क १४७ पर सूर्य द्वारा चन्द्रमा के प्रकाशित होने के विषय में तथा परमेश्वर द्वारा हृदयों के प्रकाशन के विषय में व्याख्यात की गयी थी। यहाँ उससे भिन्न व्याख्या दी जा रही है।
पदार्थ -
(अत्र ह) यहाँ (त्वष्टुः) प्रदीप्त सूर्य से (अपीच्यम्) बाहर गये हुए प्रकाश को, लोग (गोः नाम) पृथिवी पर नत हुआ (अमन्वत) जानते हैं। (इत्था) इस प्रकार, पृथिवी को मध्य में करके वह प्रकाश (चन्द्रमसः गृहे) चन्द्रमण्डल में गिरता है, उसी से चन्द्रमा प्रकाशित होता है। यह इन्द्र परमेश्वर की ही महिमा है ॥३॥
भावार्थ - पृथिवी अण्डाकृति मार्ग से सूर्य की परिक्रमा करती है और चन्द्रमा पृथिवी की परिक्रमा करता हुआ पृथिवी के साथ-साथ सूर्य की भी परिक्रमा करता है। सूर्य और चन्द्रमा के बीच में पृथिवी के आ जाने से प्रतिदिन चन्द्रमा के सम्पूर्ण गोलार्ध पर सूर्य का प्रकाश नहीं पड़ता। चन्द्रमा का जितना अंश पृथिवी की ओट में आ जाता है, उतने अंश में सूर्य का प्रकाश न पड़ने से वह अंश अन्धकार से आच्छन्न ही रहता है। चन्द्रमा की कलाओं की ह्रास-वृद्धि का यही रहस्य है। अमावस्या को सम्पूर्ण चन्द्र के पृथिवी से ढक जाने के कारण पूरा ही चन्द्रमा अन्धकार से आवृत रहता है और पूर्णिमा को सम्पूर्ण चन्द्रमा के पृथिवी से छूटे रहने के कारण सम्पूर्ण ही चन्द्रमा प्रकाशित रहता है। यही परमेश्वर द्वारा की हुई व्यवस्था इस मन्त्र में वर्णित हुई है ॥३॥
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