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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 924
ऋषिः - बृहन्मतिराङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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पु꣣नानो꣡ अ꣢क्रमीद꣣भि꣢꣫ विश्वा꣣ मृ꣢धो꣣ वि꣡च꣢र्षणिः । शु꣣म्भ꣢न्ति꣣ वि꣡प्रं꣢ धी꣣ति꣡भिः꣢ ॥९२४॥

स्वर सहित पद पाठ

पु꣣ना꣢नः । अ꣣क्रमीत् । अभि꣢ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । मृ꣡धः꣢꣯ । वि꣡च꣢꣯र्षणिः । वि । च꣣र्षणिः । शुम्भ꣡न्ति꣢ । वि꣡प्र꣢꣯म् । वि । प्र꣣म् । धी꣡तिभिः꣢ ॥९२४॥


स्वर रहित मन्त्र

पुनानो अक्रमीदभि विश्वा मृधो विचर्षणिः । शुम्भन्ति विप्रं धीतिभिः ॥९२४॥


स्वर रहित पद पाठ

पुनानः । अक्रमीत् । अभि । विश्वाः । मृधः । विचर्षणिः । वि । चर्षणिः । शुम्भन्ति । विप्रम् । वि । प्रम् । धीतिभिः ॥९२४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 924
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(पुनानः) मनों को शुद्ध करता हुआ (विचर्षणिः)सब शास्त्रों का पार-द्रष्टा सोम आचार्य, शिष्यों की (विश्वाः मृधः) सब हिंसावृत्तियों को (अभि अक्रमीत्) विनष्ट कर देता है। उस (विप्रम्) मेधावी ब्राह्मण आचार्य को, शिष्यगण (धीतिभिः) शिष्यों के योग्य कर्मों द्वारा (शुम्भन्ति) शोभित करते हैं, अर्थात् उससे बताये हुए कर्मों को करते हुए उसके गौरव को बढ़ाते हैं ॥१॥

भावार्थ - जैसे आचार्य शिष्यों के दोषों का परिमार्जन करके उन्हें निष्पाप करता है, वैसे ही शिष्यों को भी चाहिए कि वे आचार्य के आदेश को शिरोधार्य करके उसे प्रसन्न करें ॥१॥

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