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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 923
ऋषिः - सप्तर्षयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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त꣢वा꣣हं꣡ नक्त꣢꣯मु꣣त꣡ सो꣢म ते꣣ दि꣡वा꣢ दुहा꣣नो꣡ ब꣢भ्र꣣ ऊ꣡ध꣢नि । घृ꣣णा꣡ तप꣢꣯न्त꣣म꣢ति꣣ सू꣡र्यं꣢ प꣣रः꣡ श꣢कु꣣ना꣡ इ꣢व पप्तिम ॥९२३॥

स्वर सहित पद पाठ

त꣡व꣢꣯ । अ꣡ह꣢म् । न꣡क्त꣢꣯म् । उ꣣त꣢ । सो꣣म । ते । दि꣡वा꣢꣯ । दु꣣हानः꣢ । ब꣣भ्रो । ऊ꣡ध꣢꣯नि । घृ꣣णा꣢ । त꣡प꣢꣯न्तम् । अ꣡ति꣢꣯ । सू꣡र्य꣢꣯म् । प꣣रः꣢ । श꣣कुनाः꣢ । इ꣣व । पप्तिम ॥९२३॥


स्वर रहित मन्त्र

तवाहं नक्तमुत सोम ते दिवा दुहानो बभ्र ऊधनि । घृणा तपन्तमति सूर्यं परः शकुना इव पप्तिम ॥९२३॥


स्वर रहित पद पाठ

तव । अहम् । नक्तम् । उत । सोम । ते । दिवा । दुहानः । बभ्रो । ऊधनि । घृणा । तपन्तम् । अति । सूर्यम् । परः । शकुनाः । इव । पप्तिम ॥९२३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 923
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे (बभ्रो) भरण-पोषण करनेवाले (सोम) आनन्दरसागार परमेश्वर ! (तव) तेरा (अहम्) मैं उपासक (ते) तेरे (ऊधनि) आनन्दरस के कोश में से (नक्तम्) रात्रि को (उत) और (दिवा) दिन में भी (दुहानः) आनन्दरस को दुह रहा हूँ और (घृणा) तेज से (तपन्तम्) तपते हुए (सूर्यम्) सूर्य को भी (अति) अतिक्रान्त करके अर्थात् सूर्य से भी अधिक तेजस्वी होते हुए हम (शकुनाः इव) पक्षियों के समान (परः) भौतिक जगत् से परे विद्यमान तुझ परमात्मा की ओर (पप्तिम) उड़ रहे हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थ - मनुष्य को चाहिए कि वह तेजस्वी और तपस्वी होकर परमात्मा का साक्षात्कार करके उसके आनन्द-रस का आस्वाद लेकर मोक्ष पद को पाये ॥२॥

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