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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 930
ऋषिः - रेभः काश्यपः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अतिजगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
5
वि꣢श्वाः꣣ पृ꣡त꣢ना अभि꣣भू꣡त꣢रं꣣ न꣡रः꣢ स꣣जू꣡स्त꣢तक्षु꣣रि꣡न्द्रं꣢ जज꣣नु꣡श्च꣢ रा꣣ज꣡से꣢ । क्र꣢त्वे꣣ व꣡रे꣢ स्थे꣣म꣢न्या꣣मु꣡री꣢मु꣣तो꣡ग्रमोजि꣢꣯ष्ठं त꣣र꣡सं꣢ तर꣣स्वि꣡न꣢म् ॥९३०॥
स्वर सहित पद पाठवि꣡श्वाः꣢꣯ । पृ꣡त꣢꣯नाः । अ꣡भिभू꣡त꣢रम् । अ꣣भि । भू꣡त꣢꣯रम् । न꣡रः꣢꣯ । स꣣जूः꣢ । स꣣ । जूः꣢ । त꣣तक्षुः । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । ज꣣ज꣢नुः । च । राज꣡से꣢ । क्र꣡त्वे꣢ । व꣡रे꣢꣯ । स्थे꣣म꣡नि꣢ । आ꣣मु꣡री꣢म् । आ꣣ । मु꣡री꣢꣯म् । उ꣣त꣢ । उ꣣ग्र꣢म् । ओ꣡जि꣢꣯ष्ठम् । त꣣र꣡स꣢म् । त꣣रस्वि꣡न꣢म् ॥९३०॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वाः पृतना अभिभूतरं नरः सजूस्ततक्षुरिन्द्रं जजनुश्च राजसे । क्रत्वे वरे स्थेमन्यामुरीमुतोग्रमोजिष्ठं तरसं तरस्विनम् ॥९३०॥
स्वर रहित पद पाठ
विश्वाः । पृतनाः । अभिभूतरम् । अभि । भूतरम् । नरः । सजूः । स । जूः । ततक्षुः । इन्द्रम् । जजनुः । च । राजसे । क्रत्वे । वरे । स्थेमनि । आमुरीम् । आ । मुरीम् । उत । उग्रम् । ओजिष्ठम् । तरसम् । तरस्विनम् ॥९३०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 930
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ३७० क्रमाङ्क पर कैसे परमेश्वर को और कैसे वीर पुरुष को लोग अपना सम्राट् बनाते हैं, इस विषय में व्याख्यात हुई थी। यहाँ जीवात्मा का विषय वर्णित है।
पदार्थ -
(विश्वाः) सब (पृतनाः) बाह्य और आन्तरिक शत्रुओं की सेनाओं के (अभिभूतरम्) अतिशय पराजेता, (वरे) उत्कृष्ट (स्थेमनि) स्थिरता या दृढ़ता में विद्यमान, (आ मुरीम्) सब ओर विघ्नों और विपत्तियों को मारनेवाले, (उत) और (उग्रम्) अन्याय तथा अन्यायी के प्रति प्रचण्ड, (ओजिष्ठम्) सबसे बढ़कर ओजस्वी, (तरसम्) दुःखों से तराने में समर्थ, (तरस्विनम्) अतिशय वेगवान् (इन्द्रम्) जीवात्मा को (नरः) नेता मनुष्य (ततक्षुः) उद्बोधन देते हैं (च) और (राजसे) साम्राज्य के लिए, तथा (क्रत्वे) महान् कर्म के लिए, (जजनुः) नियुक्त करते हैं ॥१॥
भावार्थ - मनुष्य अपने आत्मा को उद्बोधन देकर बड़े-बड़े कर्म करने में, यहाँ तक कि चक्रवर्ती साम्राज्य एवं मोक्ष का साम्राज्य पाने में भी, समर्थ हो सकता है ॥१॥
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