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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 935
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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प꣡रि꣢ प्रि꣣या꣢ दि꣣वः꣢ क꣣वि꣡र्वया꣢꣯ꣳसि न꣣꣬प्त्यो꣢꣯र्हि꣣तः꣢ । स्वा꣣नै꣡र्या꣢ति क꣣वि꣡क्र꣢तुः ॥९३५॥

स्वर सहित पद पाठ

प꣡रि꣢꣯ । प्रि꣣या꣢ । दि꣣वः꣢ । क꣣विः꣢ । व꣡या꣢꣯ꣳसि । न꣣प्त्योः꣢ । हि꣣तः꣢ । स्वा꣣नैः꣢ । या꣣ति । कवि꣡क्र꣢तुः । क꣣वि꣢ । क्र꣣तुः ॥९३५॥


स्वर रहित मन्त्र

परि प्रिया दिवः कविर्वयाꣳसि नप्त्योर्हितः । स्वानैर्याति कविक्रतुः ॥९३५॥


स्वर रहित पद पाठ

परि । प्रिया । दिवः । कविः । वयाꣳसि । नप्त्योः । हितः । स्वानैः । याति । कविक्रतुः । कवि । क्रतुः ॥९३५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 935
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
शिष्यों के (नप्त्योः) आत्मा और मन का (हितः) हित करनेवाला, (कविक्रतुः) मेधावान् और सदाचारी आचार्य (दिवः) यश से प्रकाशित गुरुकुल के (प्रिया वयांसि) प्रिय शिष्यों को (स्वानैः) शास्त्रोपदेश के शब्दों के साथ (परियाति) प्राप्त होता है ॥१॥

भावार्थ - जो स्वयं विद्वान् सदाचारी और पढ़ाने में चतुर है, वही आचार्य शिष्यों को सुयोग्य बना सकता है ॥१॥

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