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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 937
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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प्र꣢प्र꣣ क्ष꣡या꣢य꣣ प꣡न्य꣢से꣣ ज꣡ना꣢य꣣ जु꣡ष्टो꣢ अ꣣द्रु꣡हः꣢ । वी꣣꣬त्य꣢꣯र्ष꣣ प꣡नि꣢ष्टये ॥९३७॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣡प्र꣢꣯ । प्र । प्र꣣ । क्ष꣡या꣢꣯य । प꣡न्य꣢꣯से । ज꣡ना꣢꣯य । जु꣡ष्टः꣢꣯ । अ꣣द्रु꣡हः꣢ । अ꣣ । द्रु꣡हः꣢꣯ । वी꣣ति꣢ । अ꣣र्ष । प꣡नि꣢꣯ष्टये ॥९३७॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रप्र क्षयाय पन्यसे जनाय जुष्टो अद्रुहः । वीत्यर्ष पनिष्टये ॥९३७॥


स्वर रहित पद पाठ

प्रप्र । प्र । प्र । क्षयाय । पन्यसे । जनाय । जुष्टः । अद्रुहः । अ । द्रुहः । वीति । अर्ष । पनिष्टये ॥९३७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 937
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
हे सोम अर्थात् विद्यारस से स्नान किये हुए नवस्नातक ! (जुष्टः) लोगों का प्रिय, (अद्रुहः) द्रोह न करनेवाला तू (क्षयाय) प्रजाओं में सद्गुण आदि के निवास के लिए, (पन्यसे जनाय) अतिशय स्तोता जन उत्पन्न करने के लिए और (पनिष्टये) शुद्ध व्यवहार के लिए (वीती) तीव्रगति से (प्र प्र अर्ष) विचरण कर ॥३॥

भावार्थ - नवस्नातकों का यह कर्त्तव्य है कि वे गुरुकुल से बाहर आकर वेदार्थ का उपदेश करते हुए लोगों को श्रेष्ठ गुण कर्मों से युक्त, परमेश्वर के स्तोता और शुद्ध व्यवहारवाला बनायें ॥३॥

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