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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 940
ऋषिः - अग्निश्चाक्षुषः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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सो꣡मः꣢ पुना꣣न꣢ ऊ꣣र्मि꣢꣫णाव्यं꣣ वा꣢रं꣣ वि꣡ धा꣢वति । अ꣡ग्रे꣢ वा꣣चः꣡ पव꣢꣯मानः꣣ क꣡नि꣢क्रदत् ॥९४०॥

स्वर सहित पद पाठ

सो꣡मः꣢꣯ । पु꣣नानः꣢ । ऊ꣣र्मि꣡णा꣢ । अ꣡व्य꣢꣯म् । वा꣡र꣢꣯म् । वि । धा꣣वति । अ꣡ग्रे꣢꣯ । वा꣣चः꣢ । प꣡व꣢꣯मानः । क꣡नि꣢꣯क्रदत् ॥९४०॥


स्वर रहित मन्त्र

सोमः पुनान ऊर्मिणाव्यं वारं वि धावति । अग्रे वाचः पवमानः कनिक्रदत् ॥९४०॥


स्वर रहित पद पाठ

सोमः । पुनानः । ऊर्मिणा । अव्यम् । वारम् । वि । धावति । अग्रे । वाचः । पवमानः । कनिक्रदत् ॥९४०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 940
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(सोमः) रसनिधि परमेश्वर (ऊर्मिणा) आनन्दरस की तरङ्ग से (पुनानः) पवित्र करता हुआ (अव्यम्) अविनश्वर (वारम्) वरणीय आत्मा के प्रति (वि धावति) वेग से जाता है। वह (वाचः) स्तुतिवाणी से (अग्रे) पूर्व ही (पवमानः) बहता हुआ (कनिक्रदत्) कल-कल शब्द करता है ॥१॥ यहाँ ब्रह्मानन्दरस प्रवाह में कारणभूत स्तुतिवाणी के प्रयोग से पहले ही ब्रह्मानन्द का प्रवाह वर्णित होने से ‘कारण से पूर्व कार्योदय होना रूप’ अतिशयोक्ति अलङ्कार है। साथ ही वस्तुतः ब्रह्मानन्द-प्रवाह में लहर और कलकल शब्द न होने पर भी उसमें लहर और कलकल शब्द का सम्बन्ध कथित होने से असम्बन्ध में सम्बन्धरूप अतिशयोक्ति भी है ॥१॥

भावार्थ - परमात्मा के ध्यान में मग्न स्तोता परमात्मा के पास से झरती हुई आनन्द की तरङ्गिणी को अपने अन्दर प्रविष्ट होते हुए अनुभव करके कृतार्थ हो जाता है ॥१॥

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