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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 944
ऋषिः - प्रतर्दनो दैवोदासिः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
5
ब्र꣣ह्मा꣢ दे꣣वा꣡नां꣢ पद꣣वीः꣡ क꣢वी꣣नां꣢꣫ ऋषि꣣र्वि꣡प्रा꣢णां महि꣣षो꣢ मृ꣣गा꣡णा꣢म् । श्ये꣣नो꣡ गृध्रा꣢꣯णा꣣ꣳ स्व꣡धि꣢ति꣣र्व꣡ना꣢ना꣣ꣳ सो꣡मः꣢ प꣣वि꣢त्र꣣म꣡त्ये꣢ति꣣ रे꣡भ꣢न् ॥९४४॥
स्वर सहित पद पाठब्र꣣ह्मा꣡ । दे꣣वा꣡ना꣢म् । प꣣दवीः꣢ । प꣣द । वीः꣢ । क꣣वीना꣢म् । ऋ꣡षिः꣢꣯ । वि꣡प्रा꣢꣯णाम् । वि । प्रा꣣णाम् । महिषः꣢ । मृ꣣गा꣡णा꣢म् । श्ये꣣नः꣢ । गृ꣡ध्रा꣢꣯णाम् । स्व꣡धि꣢꣯तिः । स्व । धि꣣तिः । व꣡ना꣢꣯नाम् । सो꣡मः꣢꣯ । प꣣वि꣡त्र꣢म् । अ꣡ति꣢꣯ । ए꣣ति । रे꣡भ꣢꣯न् ॥९४४॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनां ऋषिर्विप्राणां महिषो मृगाणाम् । श्येनो गृध्राणाꣳ स्वधितिर्वनानाꣳ सोमः पवित्रमत्येति रेभन् ॥९४४॥
स्वर रहित पद पाठ
ब्रह्मा । देवानाम् । पदवीः । पद । वीः । कवीनाम् । ऋषिः । विप्राणाम् । वि । प्राणाम् । महिषः । मृगाणाम् । श्येनः । गृध्राणाम् । स्वधितिः । स्व । धितिः । वनानाम् । सोमः । पवित्रम् । अति । एति । रेभन् ॥९४४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 944
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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विषय - अगले मन्त्र में परमात्मा के गुण-कर्म वर्णित हैं।
पदार्थ -
(देवानाम्) विद्वान् ऋत्विजों के मध्य में (ब्रह्मा) ब्रह्मा के समान मुख्य, (कवीनाम्) मेधावी काव्यकारों के मध्य में (पदवीः) पदप्रयोग के ज्ञाता के समान प्रवीण, (विप्राणाम्) ज्ञानी ब्राह्मणों के मध्य में (ऋषिः) ऋषि कोटि के मनुष्य के समान द्रष्टा, (मृगाणाम्) पशुओं के मध्य में (महिषः) भारी बोझ को ढोने में समर्थ भैंसे के समान जगत् के भार को वहन करनेवाला, (गृध्राणाम्) गिद्ध पक्षियों के मध्य में (श्येनः) बाज के समान शीघ्र गति से शत्रुओं का उच्छेद करनेवाला, (वनानाम्) मेघ-जलों के मध्य में (स्वधितिः) विद्युद्वज्र के समान ज्योतिष्मान् (सोमः) सर्वोत्पादक परमेश्वर (रेभन्) उपदेश देता हुआ (पवित्रम्) पवित्र मन को (अति) लाँघकर (एति) जीवात्मा को प्राप्त होता है ॥२॥ इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ - संसार में जिस गुण या कर्म में जो सबसे अधिक उत्कृष्ट वस्तुएँ हैं, वे उस गुण या कर्म में कथंचित् परमात्मा का उपमान कह दी जाती हैं। वास्तव में तो क्योंकि परमात्मा सबसे बड़ा है, अतः उसका उपमान लोक में मिलना सम्भव नहीं है ॥२॥
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