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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 945
ऋषिः - प्रतर्दनो दैवोदासिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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प्रा꣡वी꣢विपद्वा꣣च꣢ ऊ꣣र्मिं꣢꣫ न सिन्धु꣣र्गि꣢र꣣ स्तो꣢मा꣣न्प꣡व꣢मानो मनी꣣षाः꣢ । अ꣣न्तः꣡ पश्य꣢꣯न्वृ꣣ज꣢ने꣣मा꣡व꣢रा꣣ण्या꣡ ति꣢ष्ठति वृष꣣भो꣡ गोषु꣢꣯ जा꣡न꣢न् ॥९४५॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र । अ꣣वीविपत् । वाचः꣢ । ऊ꣣र्मि꣢म् । न । सि꣡न्धुः꣢꣯ । गि꣡रः꣢꣯ । स्तो꣡मा꣢꣯न् । प꣡व꣢꣯मानः । म꣣नीषाः꣢ । अ꣣न्त꣡रिति꣢ । प꣡श्य꣢꣯न् । वृ꣣ज꣡ना꣢ । इ꣣मा꣢ । अ꣡वरा꣢꣯णि । आ । ति꣣ष्ठति । वृषभः꣢ । गो꣡षु꣢꣯ । जा꣣न꣢म् ॥९४५॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रावीविपद्वाच ऊर्मिं न सिन्धुर्गिर स्तोमान्पवमानो मनीषाः । अन्तः पश्यन्वृजनेमावराण्या तिष्ठति वृषभो गोषु जानन् ॥९४५॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । अवीविपत् । वाचः । ऊर्मिम् । न । सिन्धुः । गिरः । स्तोमान् । पवमानः । मनीषाः । अन्तरिति । पश्यन् । वृजना । इमा । अवराणि । आ । तिष्ठति । वृषभः । गोषु । जानम् ॥९४५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 945
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
(सिन्धुः) समुद्र (ऊर्मिं न) जैसे लहर को प्रेरित करता है, वैसे ही उपासक परमात्मा के प्रति (वाचः) स्तुतिवाणियों को (प्रावीविपत्) प्रेरित करता है। परमात्मा उसकी (गिरः) स्तुति-वाणी के (स्तोमान्) समूहों को और (मनीषाः) बुद्धियों को (पवमानः) पवित्र करता है। तब (वृषभः) स्तुतियों की वर्षा करनेवाला उपासक (गोषु जानन्) इन्द्रियों के विषय में जानता हुआ अर्थात् इन्द्रियाँ बाहर की ओर जानेवाली होती हैं, यह जानता हुआ (अन्तः पश्यन्) अन्तर्दृष्टि करता हुआ (इमा) इन (अवराणि) बाह्य (वृजना) विषय भोगों के बलों को (आतिष्ठति) दबा देता है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थ - मनुष्यों को चाहिए कि विषय-विलासों से मन लौटाकर अन्तर्दृष्टि करके परमात्मा की उपासना कर आनन्दयुक्त हों ॥३॥ इस खण्ड में गुरु-शिष्य, परमात्मा और ब्रह्मानन्द का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्वखण्ड के साथ सङ्गति है ॥ पञ्चम अध्याय में षष्ठ खण्ड समाप्त ॥

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