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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 949
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
7
इ꣣म꣡मि꣢न्द्र सु꣣तं꣡ पि꣢ब꣣ ज्ये꣢ष्ठ꣣म꣡म꣢र्त्यं꣣ म꣡द꣢म् । शु꣣क्र꣡स्य꣢ त्वा꣣꣬भ्य꣢꣯क्षर꣣न्धा꣡रा꣢ ऋ꣣त꣢स्य꣣ सा꣡द꣢ने ॥९४९॥
स्वर सहित पद पाठइ꣣म꣢म् । इ꣣न्द्र । सुत꣢म् । पि꣣ब । ज्ये꣡ष्ठ꣢꣯म् । अ꣡म꣢꣯र्त्यम् । अ । म꣣र्त्यम् । म꣡द꣢꣯म् । शु꣣क्र꣡स्य꣢ । त्वा꣣ । अभि꣢ । अ꣣क्षरन् । धा꣣राः । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । सा꣡द꣢꣯ने ॥९४९॥
स्वर रहित मन्त्र
इममिन्द्र सुतं पिब ज्येष्ठममर्त्यं मदम् । शुक्रस्य त्वाभ्यक्षरन्धारा ऋतस्य सादने ॥९४९॥
स्वर रहित पद पाठ
इमम् । इन्द्र । सुतम् । पिब । ज्येष्ठम् । अमर्त्यम् । अ । मर्त्यम् । मदम् । शुक्रस्य । त्वा । अभि । अक्षरन् । धाराः । ऋतस्य । सादने ॥९४९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 949
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ३४४ क्रमाङ्क पर उपास्य-उपासक और गुरु-शिष्य के विषय में व्याख्यात हुई थी। यहाँ जीवात्मा का विषय वर्णित करते हैं।
पदार्थ -
हे (इन्द्र) विघ्नों के विदारण करने में समर्थ जीवात्मन् ! तू (इमम्) इस (सुतम्) उत्पन्न हुए, (ज्येष्ठम्) अतिशय प्रशंसनीय, (अमर्त्यम्) अमर (मदम्) उत्साहप्रद वीररस और भक्तिरस का (पिब) पान कर। (ऋतस्य सादने) सत्य के सदन तेरे हृदय में (शुक्रस्य) प्रदीप्त वीर रस की और पवित्र भक्तिरस की (धाराः) धाराएँ (त्वा अभि) तेरे प्रति (अक्षरन्) क्षरित हो रही हैं ॥१॥
भावार्थ - अपने आत्मा को वीरता की और भक्तिरस की तरङ्गों से आप्लावित करके, सब दुर्दान्त दुर्गुण, दुर्व्यसन आदियों को और दुष्टजनों को भगा कर देवासुरसंग्राम में विजय सबको प्राप्त करनी चाहिए ॥१॥
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