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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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अ꣢ग्न꣣ आ꣡ या꣢हि वी꣣त꣡ये꣢ गृणा꣣नो꣢ ह꣣व्य꣡दा꣢तये । नि꣡ होता꣢꣯ सत्सि ब꣣र्हि꣡षि꣢ ॥१॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡ग्ने꣢꣯ । आ । या꣣हि । वीत꣡ये꣢ । गृ꣣णानः꣢ । ह꣣व्य꣡दा꣢तये । ह꣣व्य꣢ । दा꣣तये । नि꣢ । हो꣡ता꣢꣯ । स꣣त्सि । बर्हि꣡षि꣢ ॥१॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये । नि होता सत्सि बर्हिषि ॥१॥


स्वर रहित पद पाठ

अग्ने । आ । याहि । वीतये । गृणानः । हव्यदातये । हव्य । दातये । नि । होता । सत्सि । बर्हिषि ॥१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
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पदार्थ -
(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! तू (वीतये) अपने अन्दर तेरी व्याप्ति—प्राप्ति के लिए “वी गतिव्याप्ति………” [अदादि॰] एवं (हव्यदातये) निज को तेरी भेंट देने के लिए (गृणानः) स्तुत किया जाता हुआ [कर्मणि कर्तृप्रत्ययः] (आयाहि) आ—मेरी ओर गति कर (होता बर्हिषि नि सत्सि) मेरे अध्यात्म यज्ञ का होता—सम्पादन करनेवाला ऋत्विक् बना हुआ अध्यात्म यज्ञ के सदन हृदयाकाश में [बर्हिः-अन्तरिक्षम् निघण्टु १।३] हृदयासन पर विराजमान हो।

भावार्थ - प्रिय परमात्मन्! तू स्तुत किया जाता हुआ मेरी ओर आ, मेरा स्वार्थ है मेरे अन्दर अपने ज्ञानप्रकाशस्वरूप से व्याप्त प्राप्त होजा, परन्तु परमात्मन्! मैं केवल अपने ही स्वार्थ के लिए तो नहीं बुला रहा हूँ तेरा भी स्वार्थ है निज समर्पण का, तू चेतन है और मैं भी चेतन हूँ, चेतन को चेतन से प्यार होता है चेतन का चेतन सजातीय है, चेतन की चेतन के साथ आत्मीयता होती है। कृपा करके मेरे हृदयगृह में आ, विराजमान हो मुझे अपना बना मेरा समर्पण स्वीकार कर, मैं तेरे अर्पित हूँ, स्वीकार कर, समर्पित हूँ, मुझे अपने स्वरूप से प्रभावित कर, ज्ञानप्रकाश से प्रतिभासित कर “आत्मनात्मानमभिसंविवेश” [यजुः॰ ३२।११] स्वात्मा से मैं तुझ परमात्मा में समाविष्ट होऊँ इस आकांक्षा को पूरी कर॥१॥

विशेष - छन्दः—गायत्री। स्वरः—षड्जः। ऋषिः—भरद्वाजः (परमात्मा के अर्चनबल को धारण करने वाला उपासक*1); देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा); छन्दः—गायत्री॥<br>

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