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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
16
त्व꣡म꣢ग्ने य꣣ज्ञा꣢ना꣣ꣳ हो꣢ता꣣ वि꣡श्वे꣢षाꣳ हि꣣तः꣢ । दे꣣वे꣢भि꣣र्मा꣡नु꣢षे꣣ ज꣡ने꣢ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । अ꣣ग्ने । यज्ञा꣡ना꣢म् । हो꣡ता꣢꣯ । वि꣡श्वे꣢꣯षाम् । हि꣣तः꣢ । दे꣣वे꣡भिः꣢ । मा꣡नु꣢꣯षे । ज꣡ने꣢꣯ ॥२॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमग्ने यज्ञानाꣳ होता विश्वेषाꣳ हितः । देवेभिर्मानुषे जने ॥२॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । अग्ने । यज्ञानाम् । होता । विश्वेषाम् । हितः । देवेभिः । मानुषे । जने ॥२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 2
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
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पदार्थ -
(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! (त्वं विश्वेषां यज्ञानां होता) तू समस्त यज्ञों—यजनीय श्रेष्ठकर्मों का सम्पादनकर्ता ऋत्विक् (मानुषे जने देवेभिः-हितः) मानुष जगत् में—मनुष्य समाज में वर्तमान विद्वानों ने धारा—माना। तथा (मानुषे जने विश्वेषां यज्ञानां होता देवेभिः-हितः) मानव समाज में होने वाले—चलने वाले—किए जाने वाले एवं मानव समाज के निमित्त किए जाने वाले समस्त श्रेष्ठ कर्मों का सम्पादनकर्त्ता ऋषियों ने तुझे धारा, निर्धारित किया, एवं ‘हितः-आहितः’ अपने अन्दर आधार किया—संस्थापित किया। अतः मेरे अध्यात्म यज्ञ का भी होता बनकर मेरी ओर आ, हृदय में विराजमान हो।
भावार्थ - परमात्मन्! मैं क्या कहूँ? केवल मात्र मेरे अध्यात्म यज्ञ का ही होता सम्पादनकर्त्ता तू नहीं, किन्तु मानव समाज में जितने भी यजनीय भावना वाले श्रेष्ठ कर्म हैं, भूखों को भोजन दान, पीड़ितों का त्राण, आतुरों को स्वास्थ्य प्रदान, गवादिरक्षाविधान, शिक्षणप्रदान, योगानुष्ठान हैं वे तुझे लक्ष्य करके ही हैं—तेरे आदेश से हैं, तेरे आशीर्वाद को पाने के लिये हैं, तेरे आश्रय से चलते फूलते-फलते हैं, अतः तू मेरी ओर आ, मेरे हृदय सदन में विराज, जिससे मैं अपने इस अध्यात्म यज्ञ को सिद्ध कर सकूँ तेरे स्वरूप को पा सकूँ, दिव्य जीवन बना सकूँ तेरे संग का अमृत पा सकूँ॥२॥
टिप्पणी -
[*1. “वाजयति—अर्चतिकर्मा” (निघण्टुः ३।१४) तथा “वाजं बलम्” (निघण्टुः २।९) वाजमर्चनं तद् बलं च भरन् यः स भरद्वाजः। “राजदन्तादिषु परम्” (अष्टाध्यायी २।२।३१)।]
विशेष - ऋषिः—भरद्वाजः (परमात्मा के अर्चनबल को धारण करने वाला उपासक*1); देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥<br>
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