Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 100
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
5
अ꣢ग्ने꣣ य꣡जि꣢ष्ठो अध्व꣣रे꣢ दे꣣वा꣡न् दे꣢वय꣣ते꣡ य꣢ज । हो꣡ता꣢ म꣣न्द्रो꣡ वि रा꣢꣯ज꣣स्य꣢ति꣣ स्रि꣡धः꣢ ॥१००॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ग्ने꣢꣯ । य꣡जि꣢꣯ष्ठः । अ꣣ध्वरे꣢ । दे꣣वा꣢न् । दे꣣वयते꣢ । य꣣ज । हो꣡ता꣢꣯ । म꣣न्द्रः꣢ । वि । रा꣣जसि । अ꣡ति꣢꣯ । स्रि꣡धः꣢꣯ ॥१००॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने यजिष्ठो अध्वरे देवान् देवयते यज । होता मन्द्रो वि राजस्यति स्रिधः ॥१००॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने । यजिष्ठः । अध्वरे । देवान् । देवयते । यज । होता । मन्द्रः । वि । राजसि । अति । स्रिधः ॥१००॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 100
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
Acknowledgment
पदार्थ -
(अग्ने) हे अग्रणेता परमात्मन्! तू (मन्द्रः) हर्षित करने वाला—सुख देने वाला (होता) अपनी शरण में लेने वाला (यजिष्ठः) अत्यन्त याजक (अध्वरे) अध्यात्म यज्ञ में (देवयते) तुझ देव को चाहते हुए के लिये (देवान्) दिव्य गुणों को (यज) ‘संगमय’ सङ्गत कर (स्रिधः) क्षयकर्ता हिंसक—दुःखदायक काम वासना आदि दोषों को “स्रिध वैदिक धातुक्षयार्थे” “न स जीयते मरुतो न हन्यते न स्रेधति” [ऋ॰ ५.५४.७] क्षीयते [दयानन्दः] “उषा उच्छेदय स्रिधः” [ऋ॰ १.४८.८] हिंसकान् [दयानन्दः] (अति विराजसि) दबाकर अकिञ्चत्कर विराजमान रह ‘लिङर्थे लट्’।
भावार्थ - अग्रणेता प्रेरक परमात्मन्! तू मुझे स्वीकार करने वाला अपनी शरण में लेने वाला प्रशस्त याजक बनकर मेरे अध्यात्म बल में तुझ इष्टदेव को चाहनेवाले मुझ अध्यात्मिक यजमान उपासक के लिये दिव्य गुणों को धारण करा, काम वासना आदि शोषक जीवनरसहीन करने वाले दोषों को अबल अकिञ्चत्कर बना दे॥४॥
विशेष - ऋषिः—विश्वामित्रः (सब जिसके मित्र हैं और सबका जो मित्र है ऐसा उपासकजन)॥<br>
इस भाष्य को एडिट करें