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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 100
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
40
अ꣢ग्ने꣣ य꣡जि꣢ष्ठो अध्व꣣रे꣢ दे꣣वा꣡न् दे꣢वय꣣ते꣡ य꣢ज । हो꣡ता꣢ म꣣न्द्रो꣡ वि रा꣢꣯ज꣣स्य꣢ति꣣ स्रि꣡धः꣢ ॥१००॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ग्ने꣢꣯ । य꣡जि꣢꣯ष्ठः । अ꣣ध्वरे꣢ । दे꣣वा꣢न् । दे꣣वयते꣢ । य꣣ज । हो꣡ता꣢꣯ । म꣣न्द्रः꣢ । वि । रा꣣जसि । अ꣡ति꣢꣯ । स्रि꣡धः꣢꣯ ॥१००॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने यजिष्ठो अध्वरे देवान् देवयते यज । होता मन्द्रो वि राजस्यति स्रिधः ॥१००॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने । यजिष्ठः । अध्वरे । देवान् । देवयते । यज । होता । मन्द्रः । वि । राजसि । अति । स्रिधः ॥१००॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 100
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमेश्वर और आचार्य से प्रार्थना की गई है।
पदार्थ
पदार्थः हे अग्ने! ज्ञानप्रकाशयुक्त परमेश्वर अथवा आचार्य! (यजिष्ठ) अतिशय रूप से जीवन यज्ञ वा अध्ययन-अध्यापन रूप यज्ञ के साधक आप अध्वरे हिंसादिदोष से रहित जीवन-यज्ञ वा अध्ययन-अध्यापन-रूप यज्ञ में (देवयते) दिव्य गुण-कर्म-स्वभावों के अभिलाषी मुझे (देवान्) दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव (यज्ञ) प्राप्त कराइए। (होता) विद्या, सदाचार आदि के दाता, (मन्द्रः) आह्लादकारी आप (विराजसि) विशेष रूप से शोभित हो। आप (स्रिधः) हिंसको को अर्थात विद्या के विघातक आलस्य, मद मोह आदि को तथा ब्रह्मचर्य के विघातक काम-क्रोध आदि को (अति) हमसे दूर कर दीजिए।
भावार्थ
भावार्थः जैसे परमेश्वर उपासकों को दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव प्रदान करता है और पापों से उन्हें बचाता है, वैसे ही आचार्य शिष्यों को विद्या, सच्चरित्रता और दिव्य गुण-कर्म-स्वभावों की शिक्षा देकर ब्रह्मचर्चय-विघातक तथा विद्या-विघातक दुर्व्यसनों से दूर रक्खे।
पदार्थ
(अग्ने) हे अग्रणेता परमात्मन्! तू (मन्द्रः) हर्षित करने वाला—सुख देने वाला (होता) अपनी शरण में लेने वाला (यजिष्ठः) अत्यन्त याजक (अध्वरे) अध्यात्म यज्ञ में (देवयते) तुझ देव को चाहते हुए के लिये (देवान्) दिव्य गुणों को (यज) ‘संगमय’ सङ्गत कर (स्रिधः) क्षयकर्ता हिंसक—दुःखदायक काम वासना आदि दोषों को “स्रिध वैदिक धातुक्षयार्थे” “न स जीयते मरुतो न हन्यते न स्रेधति” [ऋ॰ ५.५४.७] क्षीयते [दयानन्दः] “उषा उच्छेदय स्रिधः” [ऋ॰ १.४८.८] हिंसकान् [दयानन्दः] (अति विराजसि) दबाकर अकिञ्चत्कर विराजमान रह ‘लिङर्थे लट्’।
भावार्थ
अग्रणेता प्रेरक परमात्मन्! तू मुझे स्वीकार करने वाला अपनी शरण में लेने वाला प्रशस्त याजक बनकर मेरे अध्यात्म बल में तुझ इष्टदेव को चाहनेवाले मुझ अध्यात्मिक यजमान उपासक के लिये दिव्य गुणों को धारण करा, काम वासना आदि शोषक जीवनरसहीन करने वाले दोषों को अबल अकिञ्चत्कर बना दे॥४॥
विशेष
ऋषिः—विश्वामित्रः (सब जिसके मित्र हैं और सबका जो मित्र है ऐसा उपासकजन)॥<br>
विषय
दैवी - सम्पत्-त्रयी
पदार्थ
(अग्ने)=आगे ले-चलनेवाले प्रभो ! (अध्वरे) = हिंसारहित यज्ञरूप उत्तम कर्मों में (यजिष्ठ)= सर्वोत्तम सङ्गत करनेवाले तो आप ही हो, परन्तु प्रभु भी उसी को उत्तम मार्ग पर ले-चलते हैं जो स्वयं दिव्य गुणों की प्राप्ति की कामनावाला हो । प्रभु का द्वार तो खुलेगा, पर जीव को थपथपाना तो होगा। प्रभु की कृपारूपी वायु हमारे मनरूप नाव को चलाएगी तो सही पर हमें नाव के बादवानों को खोलना होगा । इसीलिए मन्त्र में कहते हैं कि (देवयते) = दिव्य गुणों को अपनाने की कामनावाले मेरे लिए आप (देवान्) = दिव्य गुणों को (यज)=सङ्गत कराइए।
जीव की प्रार्थना को सुनकर प्रभु जीव से कहते हैं कि (होता) = तू दानपूर्वक अदन [भक्षण] करनेवाला बन । तू सदा यज्ञशेष का सेवन करनेवाला हो । यही तेरे लिए 'अमृत' है। इस अमृत के सेवन से तेरी सब अशुभ वृत्तियाँ मृत हो जाएँगी।
(मन्द्रः)=तेरी मनोवृत्ति सदा प्रसन्नतावाली हो। मनःप्रसाद ही सर्वोत्तम तप है। होता बनने से तू मन्द्र भी बन पाएगा | तेरे चेहरे पर कभी क्रोध न हो, तुझसे प्रसाद का प्रवाह चारों ओर प्रवाहित हो।
(स्त्रिधः)=हानि पहुँचाने की भावनाओं से [स्त्रिध् to injure] तेरा जीवन अति = परे हो । इन भावनाओं को तू लाँघ चुका हो। कोई तेरा अपमान करे, तुझे हानि पहुँचाए, उसके लिए भी तेरी मङ्गलकामना हो । तू सभी को अपने परमपिता प्रभु का पुत्र समझता हुआ द्वेष से शून्य हो ।
संक्षेप में तू सभी के साथ स्नेह करनेवाला इस मन्त्र का ऋषि ‘विश्वामित्र' बन। तभी यह दानशीलता, सदा प्रसन्नता तथा अहिंसारूप सम्पत्-त्रयी तुझे प्राप्त होगी। और विराजसि-तू इस संसार में विशेष शोभावाला होगा, तेरा जीवन चमक उठेगा।
भावार्थ
हम होता बनें, सदा प्रसन्न रहें और अपकारी को हानि पहुँचाने की भावना को भी अपने से दूर रक्खें ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे ज्ञानवन् ! परमेश्वर ! तू ( यजिष्ठ: ) = सबसे अधिक यजनशील, दानी, संगतिकारक है। तू ( अध्वरे ) = पुण्य दानादि कार्य में ( देवयते: ) = विद्वानों और देव, ईश्वर की कामना करते हुए पुरुष के लिये ( देवान् ) = विद्वानों को ( यज ) = एकत्र कर, परस्पर संगति करा । तू स्वयं ( होता ) = सब को दान देने और देव लोगों को आह्वान करने वाला, ( मन्द्र: ) = सब को प्रसन्न करने वाला होता हुआ ( स्रिधः ) = शत्रुगण को ( अति वि राजसि ) = अतिक्रमण करके विशेषरूप से उन पर शासन करता उन पर विराट् होकर रहता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - विश्वामित्र:।
छन्दः - उष्णिक्।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमेश्वर आचार्यश्च प्रार्थ्यते
पदार्थः
हे अग्ने ज्ञानप्रकाश परमेश्वर आचार्य वा! यजिष्ठः अतिशयेन यष्टा जीवनयज्ञस्य अध्ययनाध्यापनयज्ञस्य वा साधकः त्वम्। यजधातोसतृजन्तात् यष्टृशब्दाद अतिशायने इष्ठानि तुरिष्ठेमेयस्सु। अ ६।४।१५४ सति तृलोपः। अध्वरे हिंसादिदोषरहिते जीवनयज्ञे अध्ययनाध्यापनयज्ञे वा देवयते देवान् दिव्यान गुणकर्मस्वभावान् यज प्रापय। यजतिरत्र दानार्थः। होता विद्यासदाचारादीनां दाता मन्द्रः आह्लादकः। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु सति धातोः। स्फायितञ्चिवञ्चि उ. २।१३ इत्यनेन औणादिकः रक् प्रत्ययः। त्वम् विराजसि विशेषण शोभसे। राजृ दीप्तौ, भ्वादिः परस्मैपदं छान्दसम्। त्वम् स्रिधः हिंसकान्, विद्याविघातकान् आलस्यमदमोहादीन्, ब्रह्मचर्यविघातकान् कामक्रोधादींश्च। स्रेधतिः हिंसाकर्मा छान्दसः। अस्मत्तः अतिगमय। उपस्रगश्रुतेर्योग्यक्रियाध्याहारः॥ अत्र श्लेषालङ्कारः यजि, यज, देवा, देव इत्यत्र च छेकानुप्रासः।
भावार्थः
यथा परमेश्वर उपासकेभ्यों दिव्यगुणकर्मस्वभावान् प्रयच्छति पापेभ्यश्च तान् निवारयति, तथैवाचार्यः शिष्यान् विद्यां, सच्चारित्र्यं, दिव्यगुणकर्मस्वभावंश्च शिक्षयन् ब्रह्मचर्यविघात केभ्यो विद्याविघातकेभ्यश्च दुर्व्यसनेभ्यस्तान् दूरं रक्षेत॥
टिप्पणीः
ऋग्वेद ३।१०।७, ऋग्वेदभाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं विद्वत्पक्षे व्याख्यातः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, Thou art the great Benefactor. In noble deeds of charity, bring the learned to the pious worshipper. O joyful Donor, Thou driving our foes afar, shinest splendidly.
Translator Comment
Foes: Our physical and spiritual foes e. g., lust, anger and avarice.
Meaning
Agni, in the yajna, creative programme of love and non-violence, you are the most adorable. Bring the devas, holy divinities, for the yajamana who loves to be with the divinities. You are the giver and performer, happy giver of happiness, over-shining and over- winning the stingy and selfish uncreators. (Rg. 3-10-7)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अग्ने) હે અગ્રહોતા = આગળ લઈ જનાર પરમાત્મન્ ! તું (मन्द्रः) આનંદિત કરનાર - સુખ આપનાર (होता) પોતાનાં શરણ લેનાર (यजिष्ठः) અત્યંત યાજક (अध्वरे) અધ્યાત્મયજ્ઞમાં (देवयते) તને - દેવને ચાહનારને માટે (देवान्) દિવ્યગુણોની (यज) સંગત કરાવ. (स्रिधः) ક્ષય કરનાર હિંસક , દુઃખદાયક , કામવાસના આદિ દોષોને (अति विराजसि) દબાવીને , અકિંચિત્ કરીને વિરાજમાન રહે. (૪)
भावार्थ
ભાવાર્થ : અગ્રણેતા પ્રેરક પરમાત્મન્ ! તું મને સ્વીકાર કરનાર પોતાના શરણમાં લેનાર પ્રશસ્ત યાજક બનીને મારા અધ્યાત્મ બળમાં તને - ઇષ્ટદેવને ચાહનાર હું આધ્યાત્મિક યજમાન ઉપાસકને માટે દિવ્યગુણોને ધારણ કરાવ , કામવાસના આદિ શોષક જીવન રસહીન કરનાર દોષોને બળહીન અને અકિંચિત્કર બનાવી દે. (૪)
उर्दू (1)
Mazmoon
دیو گنُوں کو دیجئے
Lafzi Maana
(اگنے) راہِ راست پر چلانے والے پرماتمن! آپ (یجشٹھ) جگت روُپ یگیہ کے وِدھاتا ہیں۔ (ادھورے) ہِنسا رہت برہم یگیہ اُپاسنا میں (دیویتے) دیوین کو چاہنے والے کے لئے (دیوان یجے) دیو گنُوں کی پردانی کیجئے۔ (ہوتا) آپ داتا ہیں، ہرش اور آنند کو دینے والے ہیں۔ (سردھاتی وراجسی) کام وغیرہ بُرائیوں سے پاک ہو کر جگت میں وراجمان ہیں۔
Tashree
خوُشیوں کو دینے والے آنند سے جھولی بھرنے والے،
بُرے کام سے ہمیں چھڑاؤ دیوتا پد ہیں چاہنے والے۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसा परमेश्वर उपासकांना दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव प्रदान करतो व पापांपासून बचाव करतो. तसेच आचार्याने शिष्यांना विद्या, सच्चरित्रता व दिव्य गुण-कर्म-स्वभावाचे शिक्षण देऊन ब्रह्मचर्य-विघातक व विद्या विघातक दुर्व्यसनांपासून दूर ठेवावे. ॥४॥
विषय
आता परमेश्वराची व आचार्यांची प्रार्थना केली आहे -
शब्दार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानप्रकाशमय परमेश्वर अथवा हे आचार्य (यजिष्ठः) जोरन यज्ञाचे अथवा अध्ययन अध्यात्म रूप यज्ञाये साधक आशर्त (अध्वरे) आपण (अध्वरे) हिंसायी दोषापासून दूर असलेल्या माझ्या या जीवन यज्ञामध्ये अथवा अध्ययन अध्यात्म रूप यज्ञामध्ये (देवमते) दिव्य गुण कर्म स्वभाव यांची इच्छा करणाऱ्या मला (देवान्) दिव्य गुण- कर्म- स्वभाव (यज) प्राप्त होतील, असे करा. आपण (होता) विद्या आणि सदाचार प्रदाता असून (प्रन्द्रः) आल्हादकारी या रूपाने (विराजसि) विशेषत्वाने सुशोभित होत आहात. आपण (स्रिघः) हिंसकांना म्हणजे विद्येना नाश करणाऱ्या आत्मस्य, मद, मोह आणि घातक दुर्गुणऩांना तसेच ब्रह्मचर्याचे विधारक दोषांना अर्थात कामक्रोधादींना अति आमच्यापासून दूर ठेवा (अशी प्रार्थना उपासक आणि हे आचार्य, आम्ही तुमचे शिष्य तुम्हाला करीत आहोत. ।। ४।।
भावार्थ
ज्याप्रमाणे परमेश्वर उपासकांना दिव्य गुण, कर्म व स्वभाव देतो आणि त्यांना पापकर्मापासून परावृत्त करतो, तसेच आचार्याने आपल्या शिष्यांना विद्या, सच्चारित्र्य आणि दिव्य गुण, कर्म, स्वभाव धारण करण्याची प्रेरणा देत त्यांना ब्रह्मचर्म घातक वा विद्या विनाशक दुर्व्यसनांपासून दूर ठेवले पाहिजे. ।। ४।।
विशेष
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ङ्गअजिफ ङ्गयजफ तसेच ङ्गदेवा, देवा या शब्दात छेकानुप्रास आहे. ।। ४।।
तमिल (1)
Word Meaning
யக்ஞ மறிந்த நீ, அக்னியே! வானத்திலே திவ்யமானவர்களுக்கு [1]தேவர்களைக் கொண்டு வரவும். ஹோதாவாய் ஆனந்தமளிப்பவனே, உன் சோதி, சத்துருக்களை வெகு தூரம் துரத்துகின்றது.
FootNotes
[1].தேவர்களை - நல்ல பொருள்களை
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