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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 101
    ऋषिः - त्रित आप्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    61

    ज꣣ज्ञानः꣢ स꣣प्त꣢ मा꣣तृ꣡भि꣢र्मे꣣धा꣡माशा꣢꣯सत श्रि꣣ये꣢ । अ꣣यं꣢ ध्रु꣣वो꣡ र꣢यी꣣णां꣡ चि꣢केत꣣दा꣢ ॥१०१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज꣣ज्ञानः꣢ । स꣣प्त꣢ । मा꣣तृ꣡भिः꣢ । मे꣣धा꣢म् । आ । अ꣣शासत । श्रिये꣢ । अ꣣य꣢म् । ध्रु꣣वः꣢ । र꣣यीणा꣢म् । चि꣣केतत् । आ꣢ ॥१०१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जज्ञानः सप्त मातृभिर्मेधामाशासत श्रिये । अयं ध्रुवो रयीणां चिकेतदा ॥१०१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    जज्ञानः । सप्त । मातृभिः । मेधाम् । आ । अशासत । श्रिये । अयम् । ध्रुवः । रयीणाम् । चिकेतत् । आ ॥१०१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 101
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 5
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र का पवमान देवता है। उसकी कल्याणकारिता का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    पवमान सोम अर्थात् चित्तशोधक परमात्मा (सप्त) सात (मातृभिः) माता के तुल्य गायत्री आदि छन्दों से युक्त वेदवाणियों द्वारा (जज्ञानः) उपासक के हृदय में प्रादुर्भूत होकर (श्रिये) सम्पदा की प्राप्ति के लिए (मेधाम्) धारणावती बुद्धि को (आ अशासत) प्रदान करता है, जिससे (ध्रुवः) स्थितप्रज्ञ हुआ (अयम्) यह उपासक (रयीणाम्) श्रेष्ठ अध्यात्म-सम्पत्तियों को (आ चिकेतत्) प्राप्त कर लेता है ॥५॥

    भावार्थ

    गायत्री आदि सात छन्दों में बद्ध वेदवाणियों के गान से परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त किये हुए योगी को ऋतम्भरा प्रज्ञा के उत्पन्न हो जाने से सब अध्यात्मसम्पदाएँ प्राप्त हो जाती हैं ॥५॥

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    पदार्थ

    (सप्त) “सप्तभिः” सात—(मातृभिः) ज्ञान का मान—कलेवर दर्शाने वाली गायत्री आदि छन्दोमयी ज्योतियों द्वारा “मातरो भासां निर्मात्र्यः” [निरु॰ १२.८] (जज्ञानः) परमात्मा को जानता हुआ उपासक (श्रिये मेधाम्-आशासत) श्री—भद्रा कल्याणमयी स्थिति “श्रीर्वै भद्रा” [जै॰ ३.१७२] मेधा—उत्तम बुद्धि को चाहता है (अयं ध्रुवः) यह अविनाशी एकरस परमात्मा (रयीणाम्-आ-चिकेतत्) समस्त कल्याणकारी धनसम्पदाओं को भली-भाँति सुझा दें।

    भावार्थ

    परमात्मा का ज्ञान उसकी सात छन्दों वाली वेदरूप ज्ञान ज्योतियाँ भली-भाँति कराती हैं, उपासक अपनी कल्याणकामना के लिये मेधा को प्राप्त कर निश्चय कर लेता है कि वह एक रस अविनाशी परमात्मा ही समस्त धनसम्पदाओं को सुझाता है उसका आश्रय लेना, वेदस्तवनों द्वारा उसकी उपासना करनी चाहिए॥५॥

    विशेष

    ऋषिः—त्रित आप्त्यः (मेधा से तीर्णतम सब प्राप्ति में अधिकारी)॥ देवताः—पवमानः सोमः-अग्निगर्भितः (अग्निरूप प्रकाशमान धाराओं में आता हुआ शान्त परमात्मा)॥<br>

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    विषय

    क्या माँगें?

    पदार्थ

    योगदर्शन में योग-मार्ग आठ मञ्जिलोंवाला है। आठवीं मञ्जिल समाधि है [जिसमें प्रभु का साक्षात्कार हो जाना है।] उससे पहले सात मञ्जिलें हैं, जिन्हें हम साधना का नाम दे सकते हैं। ये सातों मानव जीवन को स्वस्थ, सबल, सुन्दर व सुप्रज्ञ बनाकर बड़ा उत्तम बना देतीं हैं। इस निर्माण के कारण इन्हें मन्त्र में 'सप्त मातरः' कहा है। इन सात मंजिलों को पार कर मनुष्य प्रभु का साक्षात् कर पाता है । मन्त्र में कहा है कि 'सप्त मातृभिः ' योग की इन सात [यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान] मंजिलों द्वारा जज्ञान:- -वह प्रभु तुम्हारे सामने प्रादुर्भूत हुए हैं [जनी प्रादुर्भावे]।

    ‘प्रभु से जीव क्या याचना करे?' याचना करने की सहस्रों वस्तुएँ हो सकती हैं– ‘प्रजा, पशु, आयु, प्राण, द्रविण, कीर्ति' एक-एक वस्तु मनुष्य के लिए आकर्षण रखती है। वेद कहता है कि श्(रिये)= अपने जीवन को सम्पन्न बनाने के लिए (मेधाम्)= मेधा बुद्धि को (आशासत)=माँगो। श्री शब्द 'धर्म, अर्थ, काम' तीनों पुरुषार्थों को एक शब्द से कहने के लिए प्रयुक्त होता है। यदि मनुष्य यह चाहता हो कि उसके जीवन में धर्म, अर्थ व काम तीनों का सुन्दर समन्वय हो तो वह मेधा की याचना करे। मेधा उसे कहीं भी आसक्त न होने देती हुई, धर्म, अर्थ, काम इन सभी पुरुषार्थों की श्री से सम्पन्न कर देती है।

    ‘प्रभु का दर्शन होने पर मेधा ही माँगनी है' ऐसा हम निश्चय करें कहीं ऐसा न हो कि उस विस्मय में हमें कुछ सूझे ही नहीं या हम कुछ ग़लत वस्तु माँग बैठें। अयम् =यह प्रभु तो (रयीणाम्) =सब प्रकार की सम्पत्तियों के (ध्रुवः) = अवधिभूत स्थान हैं – पवित्र पात्र हैं। ऐसा ही वह प्रभु (आ)=सर्वत्र (चिकेतत्)=जाना गया है। उन सम्पत्तियों में से हम 'धर्म में स्थिर बुद्धि' को ही चाहें। हमारी याचना सात्त्विक सम्पत्ति के लिए हों। यह सर्वोत्तम सात्त्विक सम्पत्ति ही ‘मेधा' है। इसके होने पर कुछ भी अप्राप्य न रहेगा। इस प्रकार हम प्राप्त करनेवालों में श्रेष्ठ, इस मन्त्र के ऋषि ‘आप्त्य' होंगे और संसार - सागर को तैरनेवालों में उत्तम होकर तीर्णतम=त्रित कहलाएँगे।

    भावार्थ

    भावार्थ-हम योग की सात भूमिकाओं से उस प्रभु का दर्शन करें और सदा मेधा की कामना करें।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( अयं ) = यह ( ध्रुवः ) = नित्य, कभी विचलित न होने वाला ( सप्त मातृभिः१  ) = सात माताओं  , सृष्टि के निर्माता पांच भूत, महत् अहंकार इनसे ( जज्ञानः ) = सृष्टि को प्रकट करता हुआ ( श्रिये ) = अपने विभूतिरूप शोभा या आश्रय के लिये ( मेधाम् ) उत्तम धारणा शक्ति  पर ( आशासत ) = वश करता है। वही परमेश्वर ( रयीणां ) = समस्त ऐश्वर्यों को ( आ चिकेतत् ) = भली प्रकार से जानता है ।

    अध्यात्म में - यह ध्रुव आत्मा प्रमाता, इन्द्रियों से ज्ञान करता हुआ ( श्रिये ) = अपने कल्याण के लिये ( मेधाम् आशासत ) = मेधा बुद्धि को धारण करता है । ( रयीणाम् ) = सब प्राणों के वीर्यों को जानता है ।

    सप्त मातरः = सात प्रमाता, ज्ञान साधन सात मुख्य प्राण हैं जिनको उपनिषत्कार सात ज्वाला, सात ऋषि, सात रथ, सात अश्व, सात अग्नि, सात वह्नि आदि नामों से पुकारते हैं । ( नासिकेत ) = अग्नि ध्रुव अग्नि है जिसका ज्ञान अध्रुव यज्ञ काण्ड से नहीं होता। "नह्मध्रुवै:  प्राप्यते हि ध्रुवं तत्" । का० उप० ।।  इनको ही सात छन्द, सात होता, सात सोम संस्थाओं के नामों से भी पुकारते हैं ।

    टिप्पणी

    १०१ -- अज्ञानं सप्तमातरः', 'वैधामक्षासत' 'चिकेतयत्' इति ऋ० 'अचिकेतयत्' इति । सा० ।

    १. 'सप्तमातरः - सप्त छन्दांसि 'सप्त होत्राः सप्त सोमसस्था; इति ( मा० वि० ) ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - त्रित :।

    देवता - पवमानः। 

    छन्दः - उष्णिक् । 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पवमानो देवता। तस्य कल्याणकारित्वं वर्ण्यते।

    पदार्थः

    पवमानः सोमः चित्तशोधकः परमात्मा (सप्त२) सप्तभिः। अत्र सुपां सुलुक्० अ० ७।२।३९ इति भिसो लुक्। (मातृभिः) मातृभूताभिः गायत्र्यादिच्छन्दोमयीभिः वेदवाग्भिः (जज्ञानः) उपासकस्य हृदये प्रादुर्भूतः सन्। जनी प्रादुर्भावे लिटः कानच्। (श्रिये) सम्पदे सम्पत्प्राप्त्यर्थमिति यावत्। (मेधाम्) धारणावतीं बुद्धिम् (आ अशासत) प्रयच्छति। आङः शासु इच्छायाम्, भ्वादिः, बहुलं छन्दसि।’ अ० २।४।७३ इति शपो लुक् न। येन (ध्रुवः) स्थितप्रज्ञः सन् (अयम्) एष उपासकः (रयीणाम्) श्रेष्ठा अध्यात्मसम्पदः। अत्र द्वितीयार्थे षष्ठी। (आ चिकेतत्) प्राप्नोति। कित ज्ञाने, भ्वादिः। लेटि बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७६ इति शपः श्लुः ॥५॥

    भावार्थः

    गायत्र्यादिसप्तच्छन्दोबद्धानां वेदवाचां गानेन परमात्मसान्निध्यं प्राप्नुवतो योगिन ऋतम्भराप्रज्ञोदयात् सर्वा अपि अध्यात्मसम्पदो हस्तगता भवन्ति ॥५॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०२।४, जज्ञानं सप्त मातरो वेधामशासत श्रिये। अयं ध्रुवो रयीणां चिकेत यत् ॥—इति पाठः। २. सप्तसंख्याकाः मातरः निर्मातारः आदित्याद्याः, अथवा सप्त मातरः सप्त छन्दांसि, अथवा सप्त होताः, अथवा सप्त सोमसंस्थाः—इति वि०। सप्त सप्तभिः सर्पणशीलाभिः मातृभिः अद्भिः वसतीवरीभिः संसृष्टा अभिषूयन्ते सोमाः—इति भ०। सप्त सप्तसंख्याकाभिः मातृभिः हविर्मानसमर्थाभिर्जिह्वाभिः, स्वात्मनि हविः प्रक्षेप्त्रीभिर्वा जिह्वाभिः सह जज्ञानः प्रादुर्भूतः सोऽग्निः—इति सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The Unchangeable God, creating the universe with seven mothers, controls His strength for His Superhuman manifestation. The same Lord full well knows all forms of supremacy.

    Translator Comment

    Seven Mothers: Seven forces of Nature, i.e., five elements, fire, air, water, earth, atmosphere, Mahat-Tatva, intellect and Ahankar, Ego. Some commentators describe seven mothers to be seven breaths which are spoken of in the Upanishads as seven Rishis, seven sparks, seven fires and seven metres.

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    Meaning

    Seven measured motherly orders of existence at the material, pranic and psychic level join, reveal and celebrate Soma manifesting in beauty and glory, this constant unmoved mover who, being omnipresent and pervasive, knows of the wealth and sublimity of the universe. (Rg. 9-102-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सप्त) સાત (मातृभिः) જ્ઞાનનું માનકલેવર દર્શાવનારી ગાયત્રી આદિ છંદોમયી જ્યોતિઓ દ્વારા (जज्ञानः) પરમાત્માને જાણતો ઉપાસક (श्रिये मेधाम् आशासत) શ્રી = ભદ્રા કલ્યાણમયી સ્થિતિ મેધા = ઉત્તમ બુદ્ધિની કામના કરે છે (अयं ध्रुवः) એ અવિનાશી એકરસ પરમાત્મા (रयीणाम् आ चिकेतत्) સમસ્ત કલ્યાણકારી ધન સંપદાઓને સારી રીતે આપે છે - જ્ઞાન કરાવે છે. (૫)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્માનું જ્ઞાન તેની સાત છંદોવાણી વેદરૂપ જ્ઞાન જ્યોતિઓ સારી રીતે કરાવે છે , ઉપાસક તેની કલ્યાણ કામનાને માટે મેધાને પ્રાપ્ત કરીને નિશ્ચય કરી લે છે કે , તે એકરસ અવિનાશી પરમાત્મા જ સમસ્ત ધન સંપત્તિઓનું જ્ઞાન કરાવે છે ; તેનો આશ્રય લેવો અને વેદ સ્તવનો દ્વારા તેની ઉપાસના કરવી જોઈએ. (૫)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    میدھا بُدّھی (عقل پاک)

    Lafzi Maana

    ستیہ مارگ پر چلانے والا پربھُو (ماتری بھی سپت جگیانہ) ماتا روُپ سات چھندوں والی ویدبانی دوارا پرگٹ ہوتا ہے اور بھگت کی (شِریے) شوبھا لکشمی ادھیاتمک دھن ایشوریہ کو بڑھانے کے لئے (سیدھام آشاست) اُس کی سیدھا (عقل پاک) پر غلبہ کر لیتا ہے (ایمّ) یہ پربُھو اُپاسک کے لئے (ریئی نام دھروُ) تمام ایشوریوں کی دھروُ سمپدا ہے جو ہمیشہ دائم و قائم رہتی ہے۔ (آچکیت) کیونکہ وہ پربھُو سروگیہ عالم کُل ہے، جو اپنے عابدوں کو سدا علم حقیقی سے مرُصّع کرتا رہتا ہے۔

    Tashree

    میدہا بُدھی دے کر سیوک کو دے دیتا سب کچُھ دان، دائم قائم رہے ہمیشہ یہ دھن ہے سب سے مہان۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    गायत्री इत्यादी सात छंदांमध्ये बद्ध वेदवाणीच्या गायनाने परमात्म्याचे सान्निध्य प्राप्त केलेल्या योग्याला ऋतम्भरा प्रज्ञा उत्पन्न झाल्याने सर्व अध्यात्मसंपदा प्राप्त होते ॥५॥

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    विषय

    पुढील मंत्राची देवता पवमान असून त्याच्या कल्याणकारितेचे वर्णन केले आहे.

    शब्दार्थ

    पवमान सोम अर्थात चिवशोधक परमात्मा (सप्त) सात (मातृभिः) मातेप्रमाणे गायत्री आदी छंदांनी समृद्ध अशा वेदवाणीद्वारे (जज्ञान) उपासकाच्या हृदयात प्रादुर्भूत होऊन त्याला (श्रिये) संपदा प्राप्त्यर्थ (मेघाम्) धारणावली बुद्धी (आ अशासत) प्रदान करतो, ज्या बुद्धीमुळे (ध्रुव) स्थितप्रज्ञ होऊन (अयम्) हा उपासक (रयीणाम्) श्रेष्ठ आध्यात्मिक संपदा (आ चिकेतत्) प्राप्त करू शकतो. ।। २।।

    भावार्थ

    गायत्री आदी सात छंदांमध्ये निबद्द अशा वेदवाणीच्या गायनाने परमेश्वराचे सान्निध्य प्राप्त केलेल्या योगीजनाची ऋतम्भरा प्रज्ञा जागृत होते आणि तिच्या माध्यमातून योगी मनुष्याला सर्व आध्यात्मिक संपदा प्राप्त होते. ।। ५।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    நிலையான அக்னியானவன் ஐசுவரியங்களின் வழிகளை அறிகிறான். [1] ஏழு தாய்களால் தோன்றி அறிவின் மகிமைக்குக் காரணமாகிறான்.

    FootNotes

    [1].ஏழு தாய்களால் - ஏழு பிராமணர்களால்

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