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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 107
ऋषिः - प्रयोगो भार्गवः
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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प्र꣡ मꣳहि꣢꣯ष्ठाय गायत ऋ꣣ता꣡व्ने꣢ बृह꣣ते꣢ शु꣣क्र꣡शो꣢चिषे । उ꣣पस्तुता꣡सो꣢ अ꣣ग्न꣡ये꣢ ॥१०७॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । मँ꣡हि꣢꣯ष्ठाय । गा꣣यत । ऋता꣡व्ने꣢ । बृ꣣हते꣢ । शु꣣क्र꣡शो꣢चिषे । शु꣣क्र꣢ । शो꣣चिषे । उपस्तुता꣡सः꣢ । उ꣣प । स्तुता꣡सः꣢अ꣣ग्न꣡ये꣢ ॥१०७॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र मꣳहिष्ठाय गायत ऋताव्ने बृहते शुक्रशोचिषे । उपस्तुतासो अग्नये ॥१०७॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । मँहिष्ठाय । गायत । ऋताव्ने । बृहते । शुक्रशोचिषे । शुक्र । शोचिषे । उपस्तुतासः । उप । स्तुतासःअग्नये ॥१०७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 107
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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पदार्थ -
(मंहिष्ठाय) “मंहते दानकर्मा” [निघं॰ ३.२०] अतिशय से दाता—(ऋताव्ने) अमृत वाले—अमृतरूप मोक्षानन्दधारी—“ऋतममृत-मित्याह” [जै॰ २.१६०] (बृहते) महान्—(शुक्रशोचिषे) शुक्र प्रकाश-स्वरूप—(अग्नये) परमात्मा के लिये (उप-स्तोतारः) ‘उपगत्य’ समीप होकर निमग्न होकर हे स्तुति करने वालो! (प्रगायत) गुणगान स्तुतिबखान करो।
भावार्थ - हे आत्मसमर्पण भाव से स्तुति करने वाले उपासको! अमृतरूप मोक्षानन्द धारण करनेवाले बड़े भारी दानी शुभ्रज्योतिःस्वरूप महान् इष्टदेव परमात्मा की प्रगाढ़ स्तुति गुणगान उपासना करनी चाहिये॥१॥
विशेष - छन्दः—ककुबुष्ण्कि् , स्वरः—ऋषभः। ऋषिः—भार्गवः प्रयोगः (अध्यात्म अग्नि का प्रज्वलनवेत्ता विद्वानों की परम्परा में कुशल प्रयोगकर्ता)॥ <br>
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