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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 132
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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व꣣य꣡मि꣢न्द्र त्वा꣣य꣢वो꣣ऽभि꣡ प्र नो꣢꣯नुमो वृषन् । वि꣣द्धी꣢ त्वा३꣱स्य꣡ नो꣢ वसो ॥१३२॥

स्वर सहित पद पाठ

व꣣य꣢म् । इ꣣न्द्र । त्वाय꣡वः꣢ । अ꣣भि꣢ । प्र । नो꣣नुमः । वृषन् । विद्धि꣢ । तु । अ꣣स्य꣢ । नः꣣ । वसो ॥१३२॥


स्वर रहित मन्त्र

वयमिन्द्र त्वायवोऽभि प्र नोनुमो वृषन् । विद्धी त्वा३स्य नो वसो ॥१३२॥


स्वर रहित पद पाठ

वयम् । इन्द्र । त्वायवः । अभि । प्र । नोनुमः । वृषन् । विद्धि । तु । अस्य । नः । वसो ॥१३२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 132
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
(वृषन्-इन्द्र) हे सुखों की वर्षा करने वाले ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (वयम्-आयवः) हम प्रापणशील—प्राप्त करने वाले प्रार्थीजन “आयवः-मनुष्यनाम” [निघं॰ २.३] (त्वा-अभि) तेरी शरण में (प्र-नोनुमः) प्रकृष्टरूप से पुनः पुनः स्तुति करते हैं “णु स्तुतौ” (अदादि॰) “नौति-अर्चतिकर्मा” [निघं॰ ३.१४] (वसो) हे बसने वाले—अन्तर्यामिन् देव! (नः-अस्य तु विद्धि) हमारे इस हृद्गत भाव को तो तू जान। पदपाठ में “त्वायवः” ऐसा एक पद पढ़ा है, यहाँ ‘त्वा आयवः’ ऐसा पदच्छेद करके अर्थ किया है।

भावार्थ - परमात्मन्! तू हमारे अन्दर वसने वाले अन्तर्यामी हमारे प्रत्येक हृद्गत भाव को जानता है तो फिर तेरी शरण में पहुँचने वाले हम मनुष्य तेरी पुनः पुनः स्तुति करते हैं तू इसे पूरा कर॥८॥

विशेष - ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त बसने वाला उपासक)॥<br>

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