Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 14
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
3

उ꣡प꣢ त्वाग्ने दि꣣वे꣡दि꣢वे꣣ दो꣡षा꣢वस्तर्धि꣣या꣢ व꣣य꣢म् । न꣢मो꣣ भ꣡र꣢न्त꣣ ए꣡म꣢सि ॥१४॥

स्वर सहित पद पाठ

उ꣡प꣢꣯ । त्वा꣣ । अग्ने । दिवे꣡दि꣢वे । दि꣣वे꣢ । दि꣣वे । दो꣡षा꣢꣯वस्तः । दो꣡षा꣢꣯ । व꣣स्तः । धिया꣢ । व꣣य꣢म् । न꣡मः꣢꣯ । भ꣡र꣢꣯न्तः । आ । इ꣣मसि ॥१४॥


स्वर रहित मन्त्र

उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्त एमसि ॥१४॥


स्वर रहित पद पाठ

उप । त्वा । अग्ने । दिवेदिवे । दिवे । दिवे । दोषावस्तः । दोषा । वस्तः । धिया । वयम् । नमः । भरन्तः । आ । इमसि ॥१४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 14
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
Acknowledgment

पदार्थ -
(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! (वयम्) (दिवे दिवे) दिन दिन—प्रतिदिन—निरन्तर “दिवे दिवे-अर्हनाम” [निघं॰ १.८] (दोषावस्तः) सायं प्रातः “दोषावस्तः सायं प्रातः” [दयानन्दः वेङ्कट माधवश्च] (धिया) धारणा—ध्यानवृत्ति या मन से “धीरसीत्याह यद्धि मनसा ध्यायति” [तै॰ सं॰ ६.१.७.४-५] (नमः-भरन्तः) स्तुति समर्पण करते हुए (त्वा) तुझे (उप-एमसि) प्राप्त होते हैं।

भावार्थ - प्रिय परमात्मन्! तेरी समीपता पाने के लिये प्रातः और सायं दोनों वेलाओं में प्रतिदिन ध्यान और स्वात्मा के नम्रीभाव का अनुष्ठान करते हैं। ध्यान—गुणचिन्तन से तेरे प्रति अभिरुचि रूप परवैराग्य बनता है और नमस्कार—स्वात्म समर्पण से अभ्यास साधा जाता है। व्यसन-वासना रूप कालिमा छोड़ी जाती है ध्यान से—गुणानुराग वैराग्य से। और कृतघ्नता नास्तिकता रूप कठोरता छूटती है सर्वतोभाव से स्वात्म समर्पणाभ्यास द्वारा, सो मैं उपासक इन दोनों को प्रातःसायं प्रतिदिन सेवन कर तुझे प्राप्त करूँ॥४॥

विशेष - ऋषिः—मधुच्छन्दाः (आध्यात्मिक मिठास का इच्छुक उपासक)॥<br>

इस भाष्य को एडिट करें
Top