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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 13
ऋषिः - प्रयोगो भार्गवः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
3
उ꣡प꣢ त्वा जा꣣म꣢यो꣣ गि꣢रो꣣ दे꣡दि꣢शतीर्हवि꣣ष्कृ꣡तः꣢ । वा꣣यो꣡रनी꣢꣯के अस्थिरन् ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठउ꣡प꣢꣯ । त्वा꣣ । जाम꣡यः꣢ । गि꣡रः꣢꣯ । दे꣡दि꣢꣯शतीः । ह꣣विष्कृ꣡तः꣢ । ह꣣विः । कृ꣡तः꣢꣯ । वा꣣योः꣢ । अ꣡नी꣢꣯के । अ꣣स्थिरन् ॥१३॥
स्वर रहित मन्त्र
उप त्वा जामयो गिरो देदिशतीर्हविष्कृतः । वायोरनीके अस्थिरन् ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठ
उप । त्वा । जामयः । गिरः । देदिशतीः । हविष्कृतः । हविः । कृतः । वायोः । अनीके । अस्थिरन् ॥१३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 13
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
(हविष्कृतः) जैसे हवियों—आहुतियों को देने वाले आहुतियाँ ‘लुप्तोपमानोपमावाचका-लङ्कारः’ (वायोः-अनीके) वायु के दल-वायुदल—बादल में (उप-अस्थिरन्) उपस्थित हो जाती हैं—पहुँच जाती हैं पुनः वृष्टिजल लाने को, वैसे ही (जामयः-देदिशतीः-गिरः) एक दूसरे के पीछे बढ़-बढ़ कर “जाम्यतिरेकनाम” [निरु॰ ४.२०] निरन्तर अग्र प्रगतिक्रम से एक दूसरे को प्रेरित करती हुई स्तुतियाँ (त्वा) ‘उप-अस्थिरन्’ तुझ परमात्मा के पास ठहर जाती हैं—पहुँच जाती हैं उपासक तक तेरे दर्शनामृत को ले आने के लिये—ले आती हैं।
भावार्थ - परमात्मन्! जैसे अहुतियाँ वायुदल—मेघस्थान में जाकर वृष्टिजल बरसाती हैं वैसे ही उपासक की हावभावभरी आन्तरिक सत्य स्तुतियाँ परस्पर सन्तति क्रम से एक दूसरे के पीछे बढ़-बढ़ कर अग्रगति करती हुईं एक दूसरे को प्रेरित करती हुईं तुझ तक पहुँच तेरे दर्शनामृत मुझ तक बरसाने में—ले आने में समर्थ हो जाती हैं, अतः मैं अध्यात्म प्रयोगकर्ता तेरे दर्शनामृत को प्राप्त करने पान करने में अवश्य समर्थ हो जाऊँगा॥३॥
विशेष - ऋषिः—भार्गवः प्रयोगः (अध्यात्म अग्नि प्रज्वलन वेत्ताओं की परम्परा में प्रयोगकर्ता उपासक)॥<br>
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